Thursday, December 24, 2020

हर बृहस्पितवार को / नंद चतुर्वेदी

मैं तुम्हारा बन्द खिड़कियाँ खुलने तक
इन्तजार करता
यह कैसा घर है कितना सुनसान
ब्राह्मणों का घर पवित्र और डरावना

साल-दर-साल
वसन्त में एक चिड़िया आती थी
पुराने फ्रेम में लगी
तस्वीर पर चोंच मारने के लिए
उन दिनों वाली वह विकल चिड़िया
जब भी आती मैं खिड़की खोल देता
एक उदास दिन की सांझ
बचती थी दिगन्त में

खिड़की खुलते ही
इस ऐश्वर्यशाली घर की
सब दरारें नजर आने लगतीं
ऊपर तक आच्छादित जाले
जिर्ण और रंगविहिन छत
बाहर पत्ते रहित निर्वाक् पेड़

दिन बदल गये हों शायद
पूरी दुनिया के
मैं जल्दी-जल्दी चढ़ता
अपनी छत पर
वहीं से दिखतीं
बृहस्पतिवार के हाट से लौटतीं
स्त्रियाँ
गठियावात से बेहाल
हर वक्त ठिठुरती, नंग पैर
इतने से सामान से सन्तुष्ट
पुरूष सिर झुकाकर चलते
जेब में रखते
कपड़े में बँधे बीज
आने वाली फसल के लिए

ये कौन-सी स्त्रियाँ हैं
कौनसे पुरूष हर बार चलते
थोड़ी ढीली पंडलियों से
कुछ पहले से धीमे गातीं
इन रास्तों पर
हर बृहस्पतिवार को

मैं चुपचाप तुम्हें देखने को
खिड़की खोलता
कहीं पूरा मोहल्लाा ही तो देख सुन नहीं लेगा
जहाँ सन्नाटे में
गुजरती हैं दीप्तिहीन तरूणियाँ
अपनी पतली कलाइयों से पकड़े
पानी भरे गगरे

शाम को निकलते
धँसी आँखों वाले छैले
ताजा मोगरे की फूलमालाएँ पहने
रेशमी रूमाल बाँधे
दारू पिये
किसी फिल्म में
पिटी लड़की का गीत गाते

खिड़कियाँ बन्द करते ही
तुम चली जातीं
हजारों मील के फासले पर
तन्हा बर्फ में लिपटी चिड़िया की तरह
सफेद और काँपती

मैं तुरन्त उस अँधेरे और
पलास्तर गिरे घर में
अपनी पुरानी लालटेन जलाता
सात रंगो वाली लालटेन
देखता कि वहाँ फिर से
चमक गयी हैं
गाँव की सब स्त्रियाँ
जो बृहस्पतिवार के हाट से लौटती है।
बची हुई सूरज की रोशनी में
अपने गाँव की तरफ देखतीं
कुछ पहले से ज्यादा उदास
और धीमे से गातीं
कोई पुराना गीत
पहले टुकड़ों में फिर एक साथ
मिलाकर
अब वे दिन नहीं हैं
और खिड़कियाँ भी खुली हैं
लेकिन इन चौखटों पर
बृहस्पतिवार की थकी स्त्रियाँ
अब तक क्यों खड़ी हैं ?

No comments:

Post a Comment

घरेलू स्त्री / ममता व्यास

जिन्दगी को ही कविता माना उसने जब जैसी, जिस रूप में मिली खूब जतन से पढ़ा, सुना और गुना... वो नहीं जानती तुम्हारी कविताओं के नियम लेकिन उ...