Friday, November 30, 2018

मैं दुश्मन की छाया से लड़ रहा था / विश्वनाथ प्रताप सिंह

कैसे भी वार करूँ
उसका सर धड़ से अलग नहीं
होता था

धरती खोद डाली
पर वह दफ़न नहीं होता था
उसके पास जाऊँ
तो मेरे ही ऊपर सवार हो जाता था
खिसिया कर दाँत काटूँ
तो मुँह मिट्टी से भर जाता था
उसके शरीर में लहू नहीं था
वार करते-करते मैं हाँफने लगा
पर उसने उफ़्फ़ नहीं की

तभी एकाएक पीछे से
एक अट्ठहास हुआ
मुड़ कर देखा, तब पता चला
कि अब तक मैं
अपने दुश्मन से नहीं,
उसकी छाया से लड़ रहा था
वह दुश्मन, जिसे अभी तक
मैंने अपना दोस्त मान रखा था।

मैं अपने दोस्त का सर काटूँ
या उसकी छाया को
दियासलाई से जला दूँ।

(नोट - विश्वनाथ प्रताप सिंह 2 दिसम्बर 1989 से 10 नवम्बर 1990 तक भारत के प्रधानमंत्री रहे।)

Thursday, November 29, 2018

कानपूरा / वरुण ग्रोवर

उजड़ी रियासत, लुटे सुलतान
अधमरी बुलबुल, आधी जान
आधी सदी की आधी नदी के
आधी सड़क पे पूरी शान
आधा आधा जोड़ के बनता
पूरा एक फ़ितूरा
और आधे बुझे चराग़ के तले
पूरा कानपूरा 
हटिया खुली, सर्राफा बंद
ताड़े रहो कलेक्टरगंज
बात बात पे फैण्टम बनना
छोड़ो, बैठ के मारो तंज 
अरे अंग्रेजन तो बिसर गए
और गय्या रोड पे पसर गयी
अंडु-बख़्शी करते करते
बची-खुची सब कसर गयी ,
कसर गयी और भसड़ मची है 
चाट के लाल धतूरा
और आधे बुझे चराग़ के तले
पूरा कानपूरा 
जेब पे पैबंद, मिजाज़ सिकंदर
ढेर मदारी, एक कलंदर
टूटी सी जादू की छड़ी
एक रुकी सी रेत घड़ी 
आगे देख के पीछे चलता
शहर ये पूरा का पूरा
और आधे बुझे चराग़ के तले
पूरा कानपूरा  
(Listen to it covered by Amit Kilam and Rahul Ram of Indian Ocean for the movie Katiyabaaz here)

Wednesday, November 28, 2018

The Sun Has Burst The Sky / Jenny Joseph

The sun has burst the sky
Because I love you
And the river its banks.

The sea laps the great rocks
Because I love you
And takes no heed of the moon dragging it away
And saying coldly 'Constancy is not for you'.
The blackbird fills the air
Because I love you
With spring and lawns and shadows falling on lawns.

The people walk in the street and laugh
I love you
And far down the river ships sound their hooters
Crazy with joy because I love you. 

Tuesday, November 27, 2018

पतझड़ के पीले पत्तों ने / भगवतीचरण वर्मा

पतझड़ के पीले पत्तों ने
प्रिय देखा था मधुमास कभी;
जो कहलाता है आज रुदन,
वह कहलाया था हास कभी;
आँखों के मोती बन-बनकर
जो टूट चुके हैं अभी-अभी
सच कहता हूँ, उन सपनों में
भी था मुझको विश्वास कभी ।

आलोक दिया हँसकर प्रातः
अस्ताचल पर के दिनकर ने;
जल बरसाया था आज अनल
बरसाने वाले अम्बर ने;
जिसको सुनकर भय-शंका से
भावुक जग उठता काँप यहाँ;
सच कहता-हैं कितने रसमय
संगीत रचे मेरे स्वर ने ।

तुम हो जाती हो सजल नयन
लखकर यह पागलपन मेरा;
मैं हँस देता हूँ यह कहकर
"लो टूट चुका बन्धन मेरा!"
ये ज्ञान और भ्रम की बातें-
तुम क्या जानो, मैं क्या जानूँ ?
है एक विवशता से प्रेरित
जीवन सबका, जीवन मेरा !

कितने ही रस से भरे हृदय,
कितने ही उन्मद-मदिर-नयन,
संसृति ने बेसुध यहाँ रचे
कितने ही कोमल आलिंगन;
फिर एक अकेली तुम ही क्यों
मेरे जीवन में भार बनीं ?
जिसने तोड़ा प्रिय उसने ही
था दिया प्रेम का यह बन्धन !

कब तुमने मेरे मानस में
था स्पन्दन का संचार किया ?
कब मैंने प्राण तुम्हारा निज
प्राणों से था अभिसार किया ?
हम-तुमको कोई और यहाँ
ले आया-जाया करता है;
मैं पूछ रहा हूँ आज अरे
किसने कब किससे प्यार किया ?

जिस सागर से मधु निकला है,
विष भी था उसके अन्तर में,
प्राणों की व्याकुल हूक-भरी
कोयल के उस पंचम स्वर में;
जिसको जग मिटना कहता है,
उसमें ही बनने का क्रम है;
तुम क्या जानो कितना वैभव
है मेरे इस उजड़े घर में ?

मेरी आँखों की दो बूँदों
में लहरें उठतीं लहर-लहर;
मेरी सूनी-सी आहों में
अम्बर उठता है मौन सिहर,
निज में लय कर ब्रह्माण्ड निखिल
मैं एकाकी बन चुका यहाँ,
संसृति का युग बन चुका अरे
मेरे वियोग का प्रथम प्रहर !

कल तक जो विवश तुम्हारा था,
वह आज स्वयं हूँ मैं अपना;
सीमा का बन्धन जो कि बना,
मैं तोड़ चुका हूँ वह सपना;
पैरों पर गति के अंगारे,
सर पर जीवन की ज्वाला है;
वह एक हँसी का खेल जिसे
तुम रोकर कह देती 'तपना'।

मैं बढ़ता जाता हूँ प्रतिपल,
गति है नीचे गति है ऊपर;
भ्रमती ही रहती है पृथ्वी,
भ्रमता ही रहता है अम्बर !
इस भ्रम में भ्रमकर ही भ्रम के
जग में मैंने पाया तुमको;
जग नश्वर है, तुम नश्वर हो,
बस मैं हूँ केवल एक अमर !

Monday, November 26, 2018

From This Height / Tony Hoagland

Cold wind comes out of the white hills
and rubs itself against the walls of the condominium 
with an esophogeal vowel sound,
and a loneliness creeps
into the conversation by the hot tub.

We don't deserve pleasure
just as we don't deserve pain,
but it's pure sorcery the way the feathers of warm mist 
keep rising from the surface of the water
to wrap themselves around a sculpted
clavicle or wrist.

It's not just that we are on
the eighth story of the world
looking out through glass and steel
with a clarity of vision
in which imported coffee and
a knowledge of French painting
are combined,

but that we are atop a pyramid
of all the facts that make this possible: 
the furnace that heats the water, 
the truck that hauled the fuel,
the artery of highway
blasted through the mountains,

the heart attack of the previous owner, 
the history of Western medicine 
that failed to save him,
the successful development of tourism,
the snow white lotions that counteract the chemistry 
of chlorine upon skin—our skin.

Down inside history's body,
the slaves are still singing in the dark; 
the roads continue to be built;
the wind blows and the building grips itself 
in anticipation of the next strong gust.

So an enormous act of forgetting is required 
simply to kiss someone
or to open your mouth
for the fork of high-calorie paté
someone is raising to your lips,

which, considering the price, 
it would be a sin 
not to enjoy.

Sunday, November 25, 2018

सपना (भोजपुरी कविता) / केशव मोहन पाण्डेय

हमहूँ सपना देखेनी
सपनवे ओढ़ेनी
सपनवे बिछावेनी,
पेट के क्षुब्धा
सपनवे से मेटावेनी।
सपने से चलत सँसरी बा
जेकरा लगे सपना नइखे
ओकर जिनगी तऽ
जीअतके में फँसरी बाऽ।
हमरा लगे
झोरा भर के सपना बा
सपना के अंबार बा,
सपना नइखे तऽ
सब धूराऽ,
सपनवे से घर-संसार बाऽ।
सपना हऽ
बाबूजी के असरा के
माई के जोगावत रिश्तन में
मुस्कान के
आ दिदिआ के बजड़ी के,
चिरइया के
खुलल आसमान के
सपना हऽ अंर्धांगिनी के
लइकन के
दुअरा के बकरी के,
सपनवा तऽ हमरो बा
नून, तेल, लकड़ी के।
सपना
पढ़ाई के
लिखाई के
रिश्ता निभवला के
जोरन पेठवला के
कान में अँगुरी डाल
बिरहा गवला के
घर के
दुआर के
सोंझका ओरी के
सरकत लरही के,
सबके अँखिया में बसेला सपना
हाँड़ी पर चढ़त परई के।
खाली सुतले में मत देखीं
सपना-रोग के
दवाई के,
अँखियो उघार देखीं
सपना के सच्चाई के।
जो जी जान से जुगुत करेब तऽ
सगरो बिपत धूराऽ हो जाई, 
तनी चाह के तऽ देखींऽ
राउर सगरो सपना
पूरा हो जाई।

Saturday, November 24, 2018

Where Do You Come From? / Meena Alexander

I come from the nether regions 
They serve me pomegranate seeds with morsels of flying fish
From time to time I wear a crown of blood streaked grass.
 
Mama beat me when I was a child for stealing honey from a honey pot
It swung from the rafters of the kitchen.
Why I stuffed my mouth with golden stuff, no one could tell.
 
King Midas wore a skin that killed him. 
My nails are patterned ebony, Doxil will do that
They made a port under my collar bone with a plastic tube that runs into a blood vessel.
 
I set out with mama from Bombay harbor.
Our steamer was SS Jehangir, in honor of the World Conqueror -
They say he knelt on the battle field to stroke the Beloved’s shadow.
 
The waves were dark in Bombay harbor, Gandhi wrote in his Autobiography
Writing too is an experiment with truth.
No one knows my name in Arabic means port.
 
On board white people would not come near us
Were they scared our brown skin would sully them? 
Mama tried to teach me English in a sing song voice.
 
So you can swim into your life she said. 
Wee child, my language tutor muttered ruler in hand, ready to strike,
Just pronounce the words right:
 
Pluck, pluck             Suck, suck
 
          Duck, duck
 
                               Stuck, stuck.

Friday, November 23, 2018

तुम बिल्कुल हम जैसे निकले / फ़हमीदा रियाज़

तुम बिल्कुल हम जैसे निकले
अब तक कहाँ छपे थे भाई
वो मूरखता वो घामड़-पन
जिस में हम ने सदी गँवाई
आख़िर पहुँची द्वार तुहारे
अरे बधाई बहुत बधाई
प्रीत धर्म का नाच रहा है
क़ाएम हिन्दू राज करोगे
सारे उल्टे काज करोगे
अपना चमन ताराज करोगे
तुम भी बैठे करोगे सोचा
पूरी है वैसी तय्यारी
कौन है हिन्दू कौन नहीं है
तुम भी करोगे फ़तवा जारी
होगा कठिन यहाँ भी जीना
दाँतों जाएगा पसीना
जैसी-तैसी कटा करेगी
यहाँ भी सब की साँस घुटेगी
भाड़ में जाए शिक्षा-विक्षा
अब जाहिल-पन के गन गाना
आगे गढ़ा है ये मत देखो
वापस लाओ गया ज़माना
मश्क़ करो तुम जाएगा
उल्टे पाँव चलते जाना
ध्यान दूजा मन में आए
बस पीछे ही नज़र जमाना
एक जाप सा करते जाओ
बारम-बार यही दोहराओ
कैसा वीर महान था भारत
कितना आली-शान था भारत
फिर तुम लोग पहुँच जाओगे
बस परलोक पहुँच जाओगे
हम तो हैं पहले से वहाँ पर
तुम भी समय निकालते रहना
अब जिस नर्क में जाओ वहाँ से
चिट्ठी-विट्ठी डालते रहना

(Listen this poem recited by the
poetess here. She breathed her
last yesterday in Lahore. Rest in
Peace.)

घरेलू स्त्री / ममता व्यास

जिन्दगी को ही कविता माना उसने जब जैसी, जिस रूप में मिली खूब जतन से पढ़ा, सुना और गुना... वो नहीं जानती तुम्हारी कविताओं के नियम लेकिन उ...