Friday, November 30, 2018

मैं दुश्मन की छाया से लड़ रहा था / विश्वनाथ प्रताप सिंह

कैसे भी वार करूँ
उसका सर धड़ से अलग नहीं
होता था

धरती खोद डाली
पर वह दफ़न नहीं होता था
उसके पास जाऊँ
तो मेरे ही ऊपर सवार हो जाता था
खिसिया कर दाँत काटूँ
तो मुँह मिट्टी से भर जाता था
उसके शरीर में लहू नहीं था
वार करते-करते मैं हाँफने लगा
पर उसने उफ़्फ़ नहीं की

तभी एकाएक पीछे से
एक अट्ठहास हुआ
मुड़ कर देखा, तब पता चला
कि अब तक मैं
अपने दुश्मन से नहीं,
उसकी छाया से लड़ रहा था
वह दुश्मन, जिसे अभी तक
मैंने अपना दोस्त मान रखा था।

मैं अपने दोस्त का सर काटूँ
या उसकी छाया को
दियासलाई से जला दूँ।

(नोट - विश्वनाथ प्रताप सिंह 2 दिसम्बर 1989 से 10 नवम्बर 1990 तक भारत के प्रधानमंत्री रहे।)

No comments:

Post a Comment

घरेलू स्त्री / ममता व्यास

जिन्दगी को ही कविता माना उसने जब जैसी, जिस रूप में मिली खूब जतन से पढ़ा, सुना और गुना... वो नहीं जानती तुम्हारी कविताओं के नियम लेकिन उ...