Thursday, January 31, 2019

Friendship / Henry David Thoreau

I think awhile of Love, and while I think, 
Love is to me a world, 
Sole meat and sweetest drink, 
And close connecting link 
Tween heaven and earth. 

I only know it is, not how or why, 
My greatest happiness; 
However hard I try, 
Not if I were to die, 
Can I explain. 

I fain would ask my friend how it can be, 
But when the time arrives, 
Then Love is more lovely 
Than anything to me, 
And so I'm dumb. 

For if the truth were known, Love cannot speak, 
But only thinks and does; 
Though surely out 'twill leak 
Without the help of Greek, 
Or any tongue. 

A man may love the truth and practise it, 
Beauty he may admire, 
And goodness not omit, 
As much as may befit 
To reverence. 

But only when these three together meet, 
As they always incline, 
And make one soul the seat, 
And favorite retreat, 
Of loveliness; 

When under kindred shape, like loves and hates 
And a kindred nature, 
Proclaim us to be mates, 
Exposed to equal fates 
Eternally; 

And each may other help, and service do, 
Drawing Love's bands more tight, 
Service he ne'er shall rue 
While one and one make two, 
And two are one; 

In such case only doth man fully prove 
Fully as man can do, 
What power there is in Love 
His inmost soul to move 
Resistlessly. 

______ 

Two sturdy oaks I mean, which side by side, 
Withstand the winter's storm, 
And spite of wind and tide, 
Grow up the meadow's pride, 
For both are strong 

Above they barely touch, but undermined 
Down to their deepest source, 
Admiring you shall find 
Their roots are intertwined 
Insep'rably.

Wednesday, January 30, 2019

गाँधी / रामधारी सिंह दिनकर

देश में जिधर भी जाता हूँ,
उधर ही एक आह्वान सुनता हूँ
"जड़ता को तोड़ने के लिए
भूकम्प लाओ ।
घुप्प अँधेरे में फिर
अपनी मशाल जलाओ ।
पूरे पहाड़ हथेली पर उठाकर
पवनकुमार के समान तरजो ।
कोई तूफ़ान उठाने को
कवि, गरजो, गरजो, गरजो !"

सोचता हूँ, मैं कब गरजा था ?
जिसे लोग मेरा गर्जन समझते हैं,
वह असल में गाँधी का था,
उस गाँधी का था, जिस ने हमें जन्म दिया था ।

तब भी हम ने गाँधी के
तूफ़ान को ही देखा,
गाँधी को नहीं ।

वे तूफ़ान और गर्जन के
पीछे बसते थे ।
सच तो यह है
कि अपनी लीला में
तूफ़ान और गर्जन को
शामिल होते देख
वे हँसते थे ।

तूफ़ान मोटी नहीं,
महीन आवाज़ से उठता है ।
वह आवाज़
जो मोम के दीप के समान
एकान्त में जलती है,
और बाज नहीं,
कबूतर के चाल से चलती है ।

गाँधी तूफ़ान के पिता
और बाजों के भी बाज थे ।
क्योंकि वे नीरवताकी आवाज थे।

Tuesday, January 29, 2019

A Burial / Ella Wheeler Wilcox

Today I had a burial of my dead. 
There was no shroud, no coffin, and no pall, 
No prayers were uttered and no tears were shed 
I only turned a picture to the wall. 

A picture that had hung within my room 
For years and years; a relic of my youth. 
It kept the rose of love in constant bloom 
To see those eyes of earnestness and truth. 

At hours wherein no other dared intrude, 
I had drawn comfort from its smiling grace. 
Silent companion of my solitude, 
My soul held sweet communion with that face. 

I lived again the dream so bright, so brief, 
Though wakened as we all are by some Fate; 
This picture gave me infinite relief, 
And did not leave me wholly desolate. 

To-day I saw an item, quite by chance, 
That robbed me of my pitiful poor dole: 
A marriage notice fell beneath my glance, 
And I became a lonely widowed soul. 

With drooping eyes, and cheeks a burning flame,
I turned the picture to the blank wall's gloom. 
My very heart had died in me of shame, 
If I had left it smiling in my room. 

Another woman's husband. So, my friend, 
My comfort, my sole relic of the past, 
I bury thee, and, lonely, seek the end. 
Swift age has swept my youth from me at last.

Monday, January 28, 2019

तू भी चुप है मैं भी चुप हूँ / जॉन एलिया

तू भी चुप है मैं भी चुप हूँ यह कैसी तन्हाई है
तेरे साथ तेरी याद आई, क्या तू सचमुच आई है

शायद वो दिन पहला दिन था पलकें बोझल होने का
मुझ को देखते ही जब उन की अँगड़ाई शरमाई है

उस दिन पहली बार हुआ था मुझ को रफ़ाक़ात का एहसास
जब उस के मलबूस की ख़ुश्बू घर पहुँचाने आई है

हुस्न से अर्ज़ ए शौक़ न करना हुस्न को ज़ाक पहुँचाना है
हम ने अर्ज़ ए शौक़ न कर के हुस्न को ज़ाक पहुँचाई है

हम को और तो कुछ नहीं सूझा अलबत्ता उस के दिल में
सोज़ ए रक़बत पैदा कर के उस की नींद उड़ाई है

हम दोनों मिल कर भी दिलों की तन्हाई में भटकेंगे
पागल कुछ तो सोच यह तू ने कैसी शक्ल बनाई है

इश्क़ ए पैचान की संदल पर जाने किस दिन बेल चढ़े
क्यारी में पानी ठहरा है दीवारों पर काई है

हुस्न के जाने कितने चेहरे हुस्न के जाने कितने नाम
इश्क़ का पैशा हुस्न परस्ती इश्क़ बड़ा हरजाई है

आज बहुत दिन बाद मैं अपने कमरे तक आ निकला था
ज्यों ही दरवाज़ा खोला है उस की खुश्बू आई है

एक तो इतना हब्स है फिर मैं साँसें रोके बैठा हूँ
वीरानी ने झाड़ू दे के घर में धूल उड़ाई है

Sunday, January 27, 2019

Sailing to Byzantium / William Butler Yeats

I

That is no country for old men. The young
In one another's arms, birds in the trees,
—Those dying generations—at their song,
The salmon-falls, the mackerel-crowded seas,
Fish, flesh, or fowl, commend all summer long
Whatever is begotten, born, and dies.
Caught in that sensual music all neglect
Monuments of unageing intellect.


II

An aged man is but a paltry thing,
A tattered coat upon a stick, unless
Soul clap its hands and sing, and louder sing
For every tatter in its mortal dress,
Nor is there singing school but studying
Monuments of its own magnificence;
And therefore I have sailed the seas and come
To the holy city of Byzantium.


III

O sages standing in God's holy fire
As in the gold mosaic of a wall,
Come from the holy fire, perne in a gyre,
And be the singing-masters of my soul.
Consume my heart away; sick with desire
And fastened to a dying animal
It knows not what it is; and gather me
Into the artifice of eternity.


IV

Once out of nature I shall never take
My bodily form from any natural thing,
But such a form as Grecian goldsmiths make
Of hammered gold and gold enamelling
To keep a drowsy Emperor awake;
Or set upon a golden bough to sing
To lords and ladies of Byzantium
Of what is past, or passing, or to come.

Saturday, January 26, 2019

झाँसी की रानी / सुभद्राकुमारी चौहान

सिंहासन हिल उठे राजवंशों ने भृकुटी तानी थी,
बूढ़े भारत में भी आई फिर से नयी जवानी थी, 
गुमी हुई आज़ादी की कीमत सबने पहचानी थी, 
दूर फिरंगी को करने की सबने मन में ठानी थी। 

चमक उठी सन सत्तावन में, वह तलवार पुरानी थी, 
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी, 
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥ 

कानपूर के नाना की, मुँहबोली बहन छबीली थी, 
लक्ष्मीबाई नाम, पिता की वह संतान अकेली थी, 
नाना के सँग पढ़ती थी वह, नाना के सँग खेली थी, 
बरछी, ढाल, कृपाण, कटारी उसकी यही सहेली थी।

वीर शिवाजी की गाथायें उसको याद ज़बानी थी, 
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी, 
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥

लक्ष्मी थी या दुर्गा थी वह स्वयं वीरता की अवतार, 
देख मराठे पुलकित होते उसकी तलवारों के वार, 
नकली युद्ध-व्यूह की रचना और खेलना खूब शिकार, 
सैन्य घेरना, दुर्ग तोड़ना ये थे उसके प्रिय खिलवाड़। 

महाराष्ट्र-कुल-देवी उसकी भी आराध्य भवानी थी, 
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी, 
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥ 

हुई वीरता की वैभव के साथ सगाई झाँसी में, 
ब्याह हुआ रानी बन आई लक्ष्मीबाई झाँसी में, 
राजमहल में बजी बधाई खुशियाँ छाई झाँसी में, 
सुघट बुंदेलों की विरुदावलि-सी वह आयी थी झांसी में।

चित्रा ने अर्जुन को पाया, शिव को मिली भवानी थी, 
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी, 
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥

उदित हुआ सौभाग्य, मुदित महलों में उजियाली छाई, 
किंतु कालगति चुपके-चुपके काली घटा घेर लाई, 
तीर चलाने वाले कर में उसे चूड़ियाँ कब भाई, 
रानी विधवा हुई, हाय! विधि को भी नहीं दया आई।

निसंतान मरे राजाजी रानी शोक-समानी थी, 
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी, 
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥

बुझा दीप झाँसी का तब डलहौज़ी मन में हरषाया, 
राज्य हड़प करने का उसने यह अच्छा अवसर पाया, 
फ़ौरन फौजें भेज दुर्ग पर अपना झंडा फहराया, 
लावारिस का वारिस बनकर ब्रिटिश राज्य झाँसी आया। 

अश्रुपूर्ण रानी ने देखा झाँसी हुई बिरानी थी, 
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी, 
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥ 

अनुनय विनय नहीं सुनती है, विकट शासकों की माया, 
व्यापारी बन दया चाहता था जब यह भारत आया, 
डलहौज़ी ने पैर पसारे, अब तो पलट गई काया, 
राजाओं नव्वाबों को भी उसने पैरों ठुकराया। 

रानी दासी बनी, बनी यह दासी अब महरानी थी, 
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी, 
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥ 

छिनी राजधानी दिल्ली की, लखनऊ छीना बातों-बात, 
कैद पेशवा था बिठूर में, हुआ नागपुर का भी घात, 
उदैपुर, तंजौर, सतारा,कर्नाटक की कौन बिसात? 
जब कि सिंध, पंजाब ब्रह्म पर अभी हुआ था वज्र-निपात। 

बंगाले, मद्रास आदि की भी तो वही कहानी थी, 
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी, 
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥

रानी रोयीं रनिवासों में, बेगम ग़म से थीं बेज़ार, 
उनके गहने कपड़े बिकते थे कलकत्ते के बाज़ार, 
सरे आम नीलाम छापते थे अंग्रेज़ों के अखबार, 
'नागपुर के ज़ेवर ले लो लखनऊ के लो नौलख हार'। 

यों परदे की इज़्ज़त परदेशी के हाथ बिकानी थी, 
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी, 
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥

कुटियों में भी विषम वेदना, महलों में आहत अपमान, 
वीर सैनिकों के मन में था अपने पुरखों का अभिमान, 
नाना धुंधूपंत पेशवा जुटा रहा था सब सामान, 
बहिन छबीली ने रण-चण्डी का कर दिया प्रकट आहवान। 

हुआ यज्ञ प्रारम्भ उन्हें तो सोई ज्योति जगानी थी, 
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी, 
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥

महलों ने दी आग, झोंपड़ी ने ज्वाला सुलगाई थी, 
यह स्वतंत्रता की चिनगारी अंतरतम से आई थी, 
झाँसी चेती, दिल्ली चेती, लखनऊ लपटें छाई थी, 
मेरठ, कानपुर,पटना ने भारी धूम मचाई थी, 

जबलपुर, कोल्हापुर में भी कुछ हलचल उकसानी थी, 
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी, 
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥

इस स्वतंत्रता महायज्ञ में कई वीरवर आए काम, 
नाना धुंधूपंत, ताँतिया, चतुर अज़ीमुल्ला सरनाम, 
अहमदशाह मौलवी, ठाकुर कुँवरसिंह सैनिक अभिराम, 
भारत के इतिहास गगन में अमर रहेंगे जिनके नाम। 

लेकिन आज जुर्म कहलाती उनकी जो कुरबानी थी, 
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी, 
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥

इनकी गाथा छोड़, चले हम झाँसी के मैदानों में, 
जहाँ खड़ी है लक्ष्मीबाई मर्द बनी मर्दानों में, 
लेफ्टिनेंट वाकर आ पहुँचा, आगे बढ़ा जवानों में, 
रानी ने तलवार खींच ली, हुया द्वंद असमानों में। 

ज़ख्मी होकर वाकर भागा, उसे अजब हैरानी थी, 
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी, 
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥

रानी बढ़ी कालपी आई, कर सौ मील निरंतर पार, 
घोड़ा थक कर गिरा भूमि पर गया स्वर्ग तत्काल सिधार, 
यमुना तट पर अंग्रेज़ों ने फिर खाई रानी से हार, 
विजयी रानी आगे चल दी, किया ग्वालियर पर अधिकार। 

अंग्रेज़ों के मित्र सिंधिया ने छोड़ी राजधानी थी, 
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी, 
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥

विजय मिली, पर अंग्रेज़ों की फिर सेना घिर आई थी, 
अबके जनरल स्मिथ सम्मुख था, उसने मुहँ की खाई थी, 
काना और मंदरा सखियाँ रानी के संग आई थी, 
युद्ध श्रेत्र में उन दोनों ने भारी मार मचाई थी। 

पर पीछे ह्यूरोज़ आ गया, हाय! घिरी अब रानी थी, 
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी, 
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥

तो भी रानी मार काट कर चलती बनी सैन्य के पार, 
किन्तु सामने नाला आया, था वह संकट विषम अपार, 
घोड़ा अड़ा, नया घोड़ा था, इतने में आ गये सवार, 
रानी एक, शत्रु बहुतेरे, होने लगे वार-पर-वार। 

घायल होकर गिरी सिंहनी उसे वीर गति पानी थी, 
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी, 
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥

रानी गई सिधार चिता अब उसकी दिव्य सवारी थी, 
मिला तेज से तेज, तेज की वह सच्ची अधिकारी थी, 
अभी उम्र कुल तेइस की थी, मनुज नहीं अवतारी थी, 
हमको जीवित करने आयी बन स्वतंत्रता-नारी थी, 

दिखा गई पथ, सिखा गई हमको जो सीख सिखानी थी, 
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी, 
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥

जाओ रानी याद रखेंगे ये कृतज्ञ भारतवासी, 
यह तेरा बलिदान जगावेगा स्वतंत्रता अविनासी, 
होवे चुप इतिहास, लगे सच्चाई को चाहे फाँसी, 
हो मदमाती विजय, मिटा दे गोलों से चाहे झाँसी। 

तेरा स्मारक तू ही होगी, तू खुद अमिट निशानी थी, 
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी, 
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥

घरेलू स्त्री / ममता व्यास

जिन्दगी को ही कविता माना उसने जब जैसी, जिस रूप में मिली खूब जतन से पढ़ा, सुना और गुना... वो नहीं जानती तुम्हारी कविताओं के नियम लेकिन उ...