Friday, March 27, 2020

लो बोझ आसमान का, डैनों पे तोलकर / जगदीश पंकज

लो बोझ आसमान का, डैनों पे तोलकर ।
उड़ने लगा विहंग, आज पंख खोलकर ।

मौसम की बात साफ-साफ,कह के देखिए
सुख ही मिलेगा आपको, कटु-सत्य बोलकर ।

कितनी उमस है, धुन्ध-धुआँ आसमान में
ऊबे नहीं हैं लोग, अभी ज़हर घोलकर ।

हम हादसों से हरकतों में, आ गए मगर
संदिग्ध उँगलियों को भी, देखें टटोलकर ।

चाही थी स्वप्न में कभी, उजली कोई सुबह
'पंकज' उसी की आस में, बैठे हैं डोलकर ।

No comments:

Post a Comment

घरेलू स्त्री / ममता व्यास

जिन्दगी को ही कविता माना उसने जब जैसी, जिस रूप में मिली खूब जतन से पढ़ा, सुना और गुना... वो नहीं जानती तुम्हारी कविताओं के नियम लेकिन उ...