Friday, March 23, 2018

तेईस मार्च को / कुन्दन

मर्द-ए-मैदां चल दिया सरदार, तेईस मार्च को।
मान कर फ़ांसी गले का हार, तेईस मार्च को।
आसमां ने एक तूफ़ान वरपा कर दिया,
जेल की बनी ख़ूनी दीवार, तेईस मार्च को।
शाम का था वक्त कातिल ने चराग़ गुल कर दिया,
उफ़ ! सितम, अफ़सोस, हा ! दीदार, तेईस मार्च को।
तालिब-ए-दीदार आए आख़री दीदार को,
हो सकी राज़ी न पर सरकार, तेईस मार्च को।
बस, ज़बां ख़ामोश, इरादा कहने का कुछ भी न कर,
ले हाथ में कातिल खड़ा तलवार, तेईस मार्च को।
ऐ कलम ! तू कुछ भी न लिख सर से कलम हो जाएगी,
गर शहीदों का लिखा इज़हार, तेईस मार्च को।
जब ख़ुदा पूछेगा फिर जल्लाद क्या देगा जवाब,
क्या ग़ज़ब किया है तूने सरकार, तेईस मार्च को।
कीनवर कातिल ने हाय ! अपने दिल को कर ली थी,
ख़ून से तो रंग ही ली तलवार, तेईस मार्च को।
हंसते हंसते जान देते देख कर 'कुन्दन' इनहें,
पस्त हिम्मत हो गई सरकार, तेईस मार्च को।

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