Sunday, March 7, 2021

जो वर्चुअल रिश्ते बनाते हैं / गिरिजा अरोड़ा

जो वर्चुअल रिश्ते बनाते हैं
जाने कहाँ अपनी भावनाएँ छिपाते हैं

मोबाइल, कम्प्यूटर
आखिर इंसानी फैक्टरियों में बनें हैं
ईश्वरीय देन तो
वही दिल है
जो दुखता है तो
ठहरने के लिए एक कंधा ढूँढता है
कैसे दुखन को एक स्क्रीन में दबाते हैं
जो वर्चुअल रिश्ते बनाते हैं

वो वक्त भी दूर नहीं गया
जब हल्की सी ठोकर पर
ढेरों आँसू बहाते थे
रूमालों की अपेक्षा नहीं
अब केवल
फीलिंग सैड के इमोटिकॉन से
खुद को सहलाते हैं
जो वर्चुअल रिश्ते बनाते हैं

वो भी याद होगा
जब तीखे व्यंग से लबालब तीर
रिश्ते की अहमियत जताते थे
ये कड़वाहट छिपा लेते हैं
प्यार भरी संवेदनाए लिए
रोज़ रोज़ दिख जाते हैं
जो वर्चुअल रिश्ते बनाते हैं

जो टूट चुके थे रिश्ते, जो छूट चुके थे लोग
ऑनलाइन कुछ फिर मिल गए हैं
फटते हुए कपड़ों में जैसे पेबंद लग गए हैं
रूठ कर सिर पटकते नहीं
काँच की तरह चटकते नहीं
बहुत ज्यादा नहीं मिलता इन्हें
अपनों की फोटो से ही
अपनों को करीब पाते हैं
जो वर्चुअल रिश्ते बनाते हैं

No comments:

Post a Comment

घरेलू स्त्री / ममता व्यास

जिन्दगी को ही कविता माना उसने जब जैसी, जिस रूप में मिली खूब जतन से पढ़ा, सुना और गुना... वो नहीं जानती तुम्हारी कविताओं के नियम लेकिन उ...