Saturday, March 20, 2021

मौजूद है / आफ़ताब हुसैन

इस अँधेरे में जो थोड़ी रौशनी मौजूद है
दिल में उस की याद शायद आज भी मौजूद है

वक़्त की वहशी हवा क्या क्या उड़ा कर ले गई
ये भी क्या कम है कि कुछ उस की कमी मौजूद है

कौन जाने आने वाले पल में ये भी हो न हो
धूप के हमराह ये जो छाँव सी मौजूद है

No comments:

Post a Comment

घरेलू स्त्री / ममता व्यास

जिन्दगी को ही कविता माना उसने जब जैसी, जिस रूप में मिली खूब जतन से पढ़ा, सुना और गुना... वो नहीं जानती तुम्हारी कविताओं के नियम लेकिन उ...