Thursday, January 28, 2021

दरवाज़ों का नाम नहीं है / दिनेश जुगरान

यह कैसी बस्ती है
अनजानी
न छज्जे हैं
न आँगन
दरवाज़ों का नाम नहीं है
आवाज़ों के जंगल में
कोई भी हैरान नहीं है
भय से काँपती
पुतलियों में
बन्द हैं
गरम ओस के टुकड़े
सुबह का कोई नाम नहीं है

आसमानों में लिखे हैं
हादसों के क़िस्से
दीवारों पर टँगे हैं
चीख के धब्बे
दोपहर की लम्बी परछाइयों में
आश्वासनों की पहचान नहीं है
पत्थरों में नहीं होती
प्रतिस्पर्धा
देते हैं एक-दूसरे को
स्थान
रहने का
और बन जाते हैं
एक दीवार

इस बस्ती की
पहचान यही है

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