Friday, January 15, 2021

नेलपालिश / वर्तिका नन्दा

जब भी सपने बुनने की धुन में होती हूं
गाती हूं अपने लिखे गीत
अपने कानों के लिए
तो लगाने लगती हूं जाने-अनजाने अपने नाखूनों पर नेलपालिश।

एक-एक नाखून पर लाल रंग की पालिश
जब झर-झर थिरकने लगती है
मैं और मेरा मन-दोनों
रंगों से लहलहा उठते हैं।

इसलिए मुझसे
मेरे होठों की अठखेलियों का हक
भले ही लूटने की कोशिश कर लो
लेकिन नेलपालिश चिपकाने का
निजी हक
मुझसे मत छीनना।
नाखूनों पर चिपके ये रंग
मेरे अश्कों को
जरा इंद्रधनुषी बना देते हैं और
मुझे भी लगने लगती है
जिंदगी जीने लायक।

तुम नहीं समझोगे
ये नाखून मुझे चट्टानी होना सिखाते हैं।
इनके अंदर की गुलाबी त्वचा
मन की रूई को जैसे समेटे रखती है।

ये लाल-गुलाबी नेलपालिश की शीशियां
मेरे बचपन की सखी थीं
अब छूटते यौवन का प्रमाण।

ड्रैसिंग टेबल पर करीने से लगी ये शीशियां
मुझे सपनों के ब्रश को
अपने सीने के कैनवास पर फिराने में मदद करती हैं।
ये मेरा उड़नखटोला हैं।
मुझे इनसे खेलने दो।

पत्रकार होने से क्या होता है?
मन को भाती तो
नेलपालिश की महक ही है,
माइक की खुरदराहट नहीं।

No comments:

Post a Comment

घरेलू स्त्री / ममता व्यास

जिन्दगी को ही कविता माना उसने जब जैसी, जिस रूप में मिली खूब जतन से पढ़ा, सुना और गुना... वो नहीं जानती तुम्हारी कविताओं के नियम लेकिन उ...