Monday, January 11, 2021

प्रारब्ध हो तुम / नंदा पाण्डेय

सुनो!!
तुम प्रारब्ध हो मेरे
ये तो नहीं कहूँगी...पर हाँ
तुम एक शुरुआत जरूर हो
मेरी जिंदगी के उस पन्ने की
जिसमें वसंत तो है
पर वो खुशबु नहीं है
जिसकी कल्पना
मैंने की थी...!!

तुम अंत होंगे
ये भी मैं नहीं जानती...!!

हाँ कभी - कभी
ऐसा लगता है
कहीं सब कुछ छूट गया तो...?
मुझे तुम्हारे बेरुखेपन पर
शंका होती है...

मिलते हो तो,
पल दो पल लगता है कि
हमेशा मेरे भीतर बहते हो
कभी बेगाने थे ही नहीं...
और जब नहीं
मिलते हो
तो लगता है
कोई सपना था, जो
आँख खुलते ही टूट गया...!

अब जल्दी से
आ जाओ
और बरस जाओ
सावन की घटा बन कर
भिगो कर रख दो
समूचा अस्तित्व मेरा
दिल चाहता है
बहती जाऊँ मैं भी
सृजन की नदी में,
तुम्हारे साथ-साथ...और
बिना थके
बटोरती रहूँ
सारे संवाद...!!

पर तुम मिलते कहाँ हो...

No comments:

Post a Comment

घरेलू स्त्री / ममता व्यास

जिन्दगी को ही कविता माना उसने जब जैसी, जिस रूप में मिली खूब जतन से पढ़ा, सुना और गुना... वो नहीं जानती तुम्हारी कविताओं के नियम लेकिन उ...