Monday, December 28, 2020

क्यों खुद को तड़पाती हो / तारकेश्वरी तरु 'सुधि

सावन-पतझड़ की बातों में
क्यों खुद को तुम उलझाती हो
छँट जाएगा जीवन का तम
नाहक खुद को तड़पाती हो।

मैं तेरे उर की पीड़ा से,
हूँ तनिक नहीं अनजान सखी।
कुछ दिन इसको अपनाकर जी ,
ये बात जरा बस मान सखी।
है पीड़ा आज नई तेरी,
तब सहन नहीं कर पाती हो
सावन पतझड़ की...............

नित हूक ह्रदय में उठती है,
रातें भी संग- संग जगती है।
लरजे़ ये लब ख़ामोश हृदय,
आँख़ें चुपके से बहती हैं।
मैं जानूँ तुम सारे आँसू
पीड़ा सारी पी जाती हो।
सावन,पतझड़ की...........

ये जीवन बहता पानी-सा,
चुन लेगा खु़द अपनी राहें।
जो गुज़र चुका तू भूल उसे,
नव सपने फैलाते बाँहें।
निज को झूठी उम्मीदों से,
तुम आख़िर क्यो बहलाती हो?
सावन पतझड़ की..............

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