Sunday, June 28, 2020

तेरी मिट्टी / मनोज मुंतशिर

तलवारों पे सर वार दिए
अंगारों में जिस्म जलाया है
तब जा के कहीं हमने सर पे
ये केसरी रंग सजाया है

ऐ मेरी ज़मीं अफसोस नहीं
जो तेरे लिए सौ दर्द सहे
महफूज़ रहे तेरी आन सदा
चाहे जान मेरी ये रहे न रहे

ऐ मेरी ज़मीं महबूब मेरी
मेरी नस-नस में तेरा इश्क बहे
फीका ना पड़े कभी रंग तेरा
जिस्मों से निकल के खून कहे

तेरी मिट्टी में मिल जावाँ
गुल बणके मैं खिल जावाँ
इतनी सी है दिल की आरज़ू
तेरी नदियों में बह जावाँ
तेरे खेतों में लहरावाँ
इतनी सी है दिल की आरज़ू

सरसों से भरे खलिहान मेरे
जहाँ झूम के भंगड़ा पा न सका
आबाद रहे वो गाँव मेरा
जहाँ लौट के वापस जा न सका
ओ वतना वे, मेरे वतना वे
तेरा-मेरा प्यार निराला था
कुर्बान हुआ तेरी अस्मत पे
मैं कितना नसीबों वाला था

ओ हीर मेरी तू हँसती रहे
तेरी आँख घड़ी भर नम ना हो
मैं मरता था जिस मुखड़े पे
कभी उसका उजाला कम ना हो
ओ माई मेरी क्या फिक्र तुझे
क्यूँ आँख से दरिया बहता है
तू कहती थी तेरा चाँद हूँ मैं
और चाँद हमेशा रहता है

ओ रान्झणा वे, तेरी साँसों पे
थोड़ा सा वतन का भी हक था
ना देख मुझे यूँ मुड़-मुड़ के
तेरा-मेरा साथ यहीं तक था
ये तेरी ज़मीं तेरे खून से ही
तो सजती सँवरती है रांझे
तेरे इश्क की मैं हक़दार नहीं
तेरी हीर तो धरती है रांझे

तेरी मिट्टी में मिल जावाँ
गुल बणके मैं खिल जावाँ
इतनी सी है दिल की आरज़ू
तेरी नदियों में बह जावाँ
तेरे खेतों (फसलों) में लहरावाँ
इतनी सी है दिल की आरज़ू

No comments:

Post a Comment

घरेलू स्त्री / ममता व्यास

जिन्दगी को ही कविता माना उसने जब जैसी, जिस रूप में मिली खूब जतन से पढ़ा, सुना और गुना... वो नहीं जानती तुम्हारी कविताओं के नियम लेकिन उ...