Saturday, March 7, 2020

बेचारा आम आदमी / त्रिभवन कौल

गाँधी जी के तीन बंदर
तीनों मेरे अन्दर
कुलबुलाते हैं
बुरा मत देखो, बुरा मत सुनो, बुरा मत कहो
पर देखता हूँ, सुनता हूँ, कहता हूँ। क्यों?
क्यूंकि मैं एक आम आदमी हूँ
स्वतंत्र होते हुए भी मैं पराधीन हूँ
एक दुस्वप्न सा जीवन जीने को मजबूर हूँ
हर रोज, नयी भोर के संग नयी आस का घूँट पीता हूँ
कल अच्छा नहीं था, आज अच्छा होना चाहिए
यह सोच कर ही तो जीता हूँ।

मंहगाई की मार, घोटालों की धमक
गिरते मूल्यों के बीच नोटों की चमक
रोष भरपूर है पर दोष किसे दूँ
आम आदमी हूँ, मन की किसे कहूँ
महाभारत सी बन गयी है मेरी जिंदगी
एक चक्रव्यूह में फँस कर रह गयी है मेरी जिंदगी I

दुर्योधन, दु:शासन, शकुनि सरीखे
मौकों की तलाश में हमेशा रहते हैं
धृतराष्ट्र और भीष्म जैसों के मुँह पर
हमेशा की तरह ताले पड़े रहते हैं।

आज भी अभिमन्यु जैसे नौजवान
चक्रव्यूह न भेदने का बोझ ढ़ो रहे हैं
रोज कहीं न कहीं द्रौपदियों के चीर हरण हो रहे हैं
तब एक द्रौपदी के पीछे मचा था महाभारत
आज आंखे खोले ही सब के सब महारथी सो रहे हैं।

आज के इस भारत में
महाभारत के पात्र सब उपस्थित हैं
पर कृष्ण नदारद हैं
हजारों अर्जुनों के हाथ गांडीव तो हैं
पर उन्हें एक नयी गीता की अपेक्षा है
इसी आस में आम आदमी
जीता है, बस जीता है।
गाँधी जी के तीन बंदरों की तरह।।

No comments:

Post a Comment

घरेलू स्त्री / ममता व्यास

जिन्दगी को ही कविता माना उसने जब जैसी, जिस रूप में मिली खूब जतन से पढ़ा, सुना और गुना... वो नहीं जानती तुम्हारी कविताओं के नियम लेकिन उ...