Monday, January 6, 2020

मैं तुमसे लड़ना चाहता हूँ / चंद्रभूषण

प्लास्टिक के सस्ते मुखौटे सा
गिजगिजा चेहरा
आंखों में सीझती थकान
बातें बिखरी तुम्हारी
हर्फों तक टूटे अल्फाज़
तुमसे मिलकर दिन गुजरा मेरा
सदियों सा आज

इस मरी हुई धज में
मेरे सामने तुम आए क्यों
उठो खलनायक, मेरा सामना करो
मैं तुमसे लड़ना चाहता हूं।

इतनी नफरत मैंने तुमसे की है
जितना किया नहीं कभी किसी से प्यार
इस ककड़ाई शक्ल में लौटे
ओ मेरे रक़ीब
तुम्हीं तो हो
मेरे पागलपन के आखिरी गवाह

मिले हो इतने सालों बाद
वह भी इस हाल में
कहो, तुम्हारा क्या करूं।

क्यों
आखिर क्यों मैंने तुमसे इतनी नफरत की
कुछ याद नहीं
जो था इसकी वजह-
एक दिन कहां गया कुछ याद नहीं
आकाशगंगा में खिला वह नीलकमल
रहस्य था, रहस्य ही रहा मेरे लिए

दिखते रहे मुझे तो सिर्फ तुम
सामने खड़ी अभेद्य, अंतहीन दीवार
जिसे लांघना भी मेरे लिए नामुमकिन था।

फिर देखा एक दिन मैंने
तुम्हें दूर जाते हुए
वैसे ही अंतहीन, अभेद्य, कद्दावर-
जाते हुए मुझसे, उससे, सबसे दूर

और फिर देखा खुद को
धीरे-धीरे खोते हुए उस धुंध में
जहां से कभी कोई वापसी नहीं होती।

ऐसे ही चुपचाप चलता है
समय का भीषण चक्रवात
दिलों को सुस्त, कदों को समतल करता हुआ
चेहरों पर चढ़ाता प्लास्टिक के मुखौटे
जेहन पर दागता ऐसे-ऐसे घाव
जो न कभी भरते हैं
न कभी दिखते हैं

धुंध भरे आईनों में अपना चेहरा देख-देखकर
अब मैं थक चुका हूं
इतने साल से संजोकर रखी
एक चमकती हुई नफरत ही थी
खुद को कभी साफ-साफ देख पाने की
मेरी अकेली उम्मीद-
तुम दिखे आज तो वह भी जाती रही।

नहीं, कह दो कि यह कोई और है
तुम ऐसे नहीं दिख सकते-
इतने छोटे और असहाय
उठो, मेरे सपनों के खलनायक
उठो और मेरा सामना करो

मेरे पागल प्यार की आखिरी निशानी-
मौत से पहले एक बार
मैं तुमसे लड़ना चाहता हूं।

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