Monday, December 2, 2019

आख़िरी सफ़र पर निकलने तक / पंकज पराशर

पढ़ने के लिए गाँव छोड़ते समय सोचा था
पढ़ाई पूरी करने के बाद गाँव लौट जाऊँगा
मगर नौकरी लगी और गाँव लौटना मुल्तवी हो गया
नौकरी लगती रही छूटती रही और हर बार नई नौकरी की चिंता में
गाँव लौटने की बात मुल्तवी दर मुल्तवी होती रही
कई शहरों में भटकते-भटकते
नौकरी बचाए रखने की हुनर से अनजान
भटकता रहता हूँ नींद में भी गाँव की स्मृतियों में
जहाँ लौटना मुल्तवी ही होता रहा है आज तक
पिता ने कितने अरमान के साथ पढ़ा-लिखाया
कमाने-धमाने के लायक बनाया
और लायक बनकर उनके सुख-दुख से दूर
न कंधा बन सका न बुढा़पे की लाठी
जो अक्सर बेटे के जन्म पर सुनता था गाँव में
बॉस को खुश रखने और नौकरी बचाए रखने के तनावों के बीच
मुल्तवी होती रहती हैं मनपसंद किताबें
मनपसंद काम और शहर की सड़कों पर घंटों आवारगी की इच्छा
किसी के काम आने की आदर्श इच्छा आत्मकेंद्रिकता में बदलती रही
और कभी दूसरों की चिंता में भी डूबने की आदत छूटती चली गई
क्या यही चाहा था हमने जे०एन०यू० में पढ़ते हुए?
हर बार ब्यूरोक्रेट बनने के इम्तहान का फार्म भरने से इनकार करते हुए?

न पिता खुश हैं न माँ खुश है
और बॉस की नाराज़गी तो उनका स्थाई भाव बन गया है
जबकि अपनी खुशी की तलाश तक के लिए वक़्त नहीं मिला कभी मुझे?
मुल्तवी करते-करते एक दिन सब कुछ मुल्तवी होता चला जाएगा
और शायद कहीं लौटना संभव न हो
गहरे अफसोस के साथ आखिरी सफर पर निकलने तक।

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