Tuesday, October 8, 2019

कभी तक़्सीर जिस ने की ही नहीं / इस्माइल मेरठी

कभी तक़्सीर जिस ने की ही नहीं
हम से पूछो तो आदमी ही नहीं
मर चुके जीते-जी ख़ुशा क़िस्मत
इस से अच्छी तो ज़िंदगी ही नहीं
दोस्ती और किसी ग़रज़ के लिए
वो तिजारत है दोस्ती ही नहीं
या वफ़ा ही थी ज़माने में
या मगर दोस्तों ने की ही नहीं
कुछ मिरी बात कीमिया तो थी
ऐसी बिगड़ी कि फिर बनी ही नहीं
जिस ख़ुशी को हो क़याम-ओ-दवाम
ग़म से बद-तर है वो ख़ुशी ही नहीं
बंदगी का शुऊ'र है जब तक
बंदा-परवर वो बंदगी ही नहीं
एक दो घूँट जाम-ए-वहदत के
जो पी ले वो मुत्तक़ी ही नहीं
की है ज़ाहिद ने आप दुनिया तर्क
या मुक़द्दर में उस के थी ही नहीं

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