Thursday, October 3, 2019

किनारे / अन्विता दत्त गुप्तन

ढूँढे हर इक साँस में,
डुबकियों के बाद में,
हर भँवर के पास...
किनारे।

बह रहे जो साथ में,
जो हमारे खास थे,
कर गये अपनी बात...
किनारे।

गर माँझी सारे साथ में
गैर हो भी जायें,
तो खुद ही तो पतवार बन
पार होंगे हम।

जो छोटी सी हर इक नहर
सागर बन भी जाये,
कोई तिनका ले के हाथ में
ढूँढ लेंगे हम... किनारे।
किनारे... किनारे।

खुद ही तो हैं हम... किनारे।
कैसे होंगे कम... किनारे।
हैं, जहाँ हैं हम... किनारे।
खुद ही तो हैं हम,
हाँ, खुद ही तो हैं हम।

औरों से क्या, खुद ही से
पूछ लेंगे राहें।
यहीं-कहीं, मौज़ों में ही,
ढूँढ लेंगे हम...

बूँदों से ही, तो है बनी...
बांध लेंगे लहरें।
पैरों तले जो भी मिले,
बाँध लेंगे हम... किनारे।
किनारे... किनारे...

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