Monday, October 21, 2019

मुझ में बसी थी धूप / वत्सला पाण्डे

धूप थी मुझमें कि
धूप में थी मैं

जलना तो
बाहर भीतर
दोनों ही रहा

धूप की कुनकुनाहट
गुनगुना कर
क्या कहती रही

तपिश ही थी
चारों ओर
‘रूख’ कहीं आस पास
देखे ही नहीं

तपते थे पाखी
तपता था जग
उसमें तपते रहे हम

किसी का सुख
किसी का
बनी दुःख

मुझमें बसी थी
एक धूप

No comments:

Post a Comment

घरेलू स्त्री / ममता व्यास

जिन्दगी को ही कविता माना उसने जब जैसी, जिस रूप में मिली खूब जतन से पढ़ा, सुना और गुना... वो नहीं जानती तुम्हारी कविताओं के नियम लेकिन उ...