Sunday, September 1, 2019

रो लो, पुरुषों / पल्लवी त्रिवेदी

बड़ा कमज़ोर होता है
बुक्का फाड़कर रोता हुआ आदमी
मज़बूत आदमी बड़ी ईर्ष्या रखते हैं इस कमज़ोर आदमी से

****

सुनो लड़की
किसी पुरुष को बेहद चाहती हो?
तो एक काम ज़रूर करना
उसे अपने सामने फूट-फूट कर रो सकने की सहजता देना

****

दुनिया वालों
दो लोगों को कभी मत टोकना
एक दुनिया के सामने दोहरी होकर हँसती हुई स्त्री को
दूसरा बिलख-बिलख कर रोते हुए आदमी को
ये उस सहजता के दुर्लभ दृश्य हैं
जिसका दम घोंट दिया गया है

****

ओ मेरे पुरुष मित्र
याद है जब जन्म के बाद नहीं रोये थे
तब नर्स ने जबरन रुलाया था यह कहते हुए कि
"रोना बहुत ज़रूरी है इसके जीने के लिए"
बड़े होकर ये बात भूल कैसे गए दोस्त?

****

रो लो पुरुषो, जी भर के रो लो
ताकि तुम जान सको कि
छाती पर से पत्थर का हटना क्या होता है

****

ओ मेरे प्रेम
आखिर में अगर कुछ याद रह जाएगा तो
वह तुम्हारी बाहों में मचलती पेशियों की मछलियाँ नहीं होंगी
वो तुम्हारी आँख में छलछलाया एक कतरा समन्दर होगा

****

ओ पुरुष
स्त्री जब बिखरे तो उसे फूलों-सा सहेज लेना
ओ स्त्री
पुरूष को टूटकर बिखरने के लिए थोड़ी-सी ज़मीन देना

No comments:

Post a Comment

घरेलू स्त्री / ममता व्यास

जिन्दगी को ही कविता माना उसने जब जैसी, जिस रूप में मिली खूब जतन से पढ़ा, सुना और गुना... वो नहीं जानती तुम्हारी कविताओं के नियम लेकिन उ...