Saturday, August 24, 2019

आशा और उद्योग / रामचंद्र शुक्ल

(1)
हा! हा! मुझसे कहो न क्यों तुम, आशा कभी न होगी पूर्ण।
प्रतिफल इसका नहीं मिलेगा, बैरी मान न होता चूर्ण ।।
(2)
वृथा मुझे भय मत दिखलाओ, आशा से मत करो निराश।
कुछ भी बल हैं युगल भुजों में, तो बैरी होवेगा नाश ।।
(3)
कर्मों के फल के मिलने में यद्यपि हो जाती हैं देर।
तो भी उस जगदीश्वर के घर, होता नहीं कभी अंधेर ।।
(4)
करने दो प्रयत्न बस मुझको, देने दो जीवन का दान।
निज कर्त्तव्य पूर्ण कर लूँ मैं, फल का मुझे नहीं कुछ ध्यान ।।
(5)
यद्यपि मैं दुर्बल शरीर हूँ, जीवन भी मेरा नि:सार।
प्राणदान देने का तो भी, मुझको हैं अवश्य अधिकार ।।
(6)
जब तक मेरे इस शरीर में, कुछ भी शेष रहेंगे प्राण।
तब तक कर प्रयत्न मिटाऊँगा, अत्याचारी का अभिमान ।।
(7)
धर्म न्याय का पक्ष ग्रहण कर, कभी न दूँगा पीछे पैर।
वीर जनों की रीति यही हैं, नहीं प्रतिज्ञा लेते फेर ।।
(8)
देश दु:ख अपमान जाति का बदला मैं अवश्य लूँगा।
अन्यायी के घोर पाप का, दण्ड उसे अवश्य दूँगा ।।
(9)
यद्यपि मैं हूँ एक अकेला, बैरी की सेना भारी।
पर उद्योग नहीं छोडूँग़ा जगदीश्वर हैं सहकारी ।।
(10)
आशा! आशा! मुझको केवल तेरा रहा सहारा आज।
बल प्रदान तू मुझको करना रख लेना अब मेरी लाज ।।

No comments:

Post a Comment

घरेलू स्त्री / ममता व्यास

जिन्दगी को ही कविता माना उसने जब जैसी, जिस रूप में मिली खूब जतन से पढ़ा, सुना और गुना... वो नहीं जानती तुम्हारी कविताओं के नियम लेकिन उ...