Thursday, July 4, 2019

चर्ख़ से कुछ उम्मीद थी ही नहीं / अकबर इलाहाबादी

चर्ख़ से कुछ उम्मीद थी ही नहीं
आरज़ू मैं ने कोई की ही नहीं

मज़हबी बहस मैं ने की ही नहीं
फ़ालतू अक़्ल मुझ में थी ही नहीं

चाहता था बहुत सी बातों को
मगर अफ़सोस अब वो जी ही नहीं

जुरअत-ए-अर्ज़-ए-हाल क्या होती
नज़र-ए-लुत्फ़ उस ने की ही नहीं

इस मुसीबत में दिल से क्या कहता
कोई ऐसी मिसाल थी ही नहीं

आप क्या जानें क़द्र-ए-'या-अल्लाह'
जब मुसीबत कोई पड़ी ही नहीं

शिर्क छोड़ा तो सब ने छोड़ दिया
मेरी कोई सोसाइटी ही नहीं

पूछा ‘अकबर’ है आदमी कैसा
हँस के बोले वो आदमी ही नहीं

No comments:

Post a Comment

घरेलू स्त्री / ममता व्यास

जिन्दगी को ही कविता माना उसने जब जैसी, जिस रूप में मिली खूब जतन से पढ़ा, सुना और गुना... वो नहीं जानती तुम्हारी कविताओं के नियम लेकिन उ...