Tuesday, June 4, 2019

भीगा सा मन है / दिनेश गौतम

भीगा सा मन है, आँखें भी नम
जले हुए रिश्तों में
अब केवल राख है,
झुलस गया मन पंछी,
जली हुई पाँख है।
उजड़ गए नीड़ में तिनके भी कम

बर्फीले अंधड़ में
झरे हुए पात हैं,
बिरवे की एक डाल,
और कई घात हैं,
हत्यारी ऋतुएँ हैं, निष्ठुर मौसम

लू के किस जंगल में,
भटक गई छाँव है,
तपी हुई धरती पर
थके-थके पाँव हैं
होता भी नहीं कहीं मंज़िल का भ्रम

चंदा की देह पर
मावस के दंश हैं,
घायल हो पड़े हुए
सपनों के हंस हैैं
अर्थहीन लगता है साँसों का क्रम

टूट गई पतवारें
औ उद्दंड झोंका है,
चढ़ी हुई नदिया में
बेबस सी नौका है
सफल कहाँ हो पाए माँझी का श्रम

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