Tuesday, June 11, 2019

उस की आँखों में हया और इशारा भी है / मुश्ताक़ अंजुम

उस की आँखों में हया और इशारा भी है
बंद होंटों से मुझे इस ने पुकारा भी है

उस ने काँधे पे हमारे जो कभी सर रक्खा
यूँ लगा ज़ीस्त में कोई तो हमारा भी है

रीत भी गर्म है और धूप भी है तेज़ मगर
उस की पुर-कैफ़ रिफ़ाक़त का सहारा भी है

चूम कर हाथ मिरा देता है वो दिल को कसक
कैसा दुश्मन है कि जो जान से प्यारा भी है

उस के रुख़्सार पे बारिश की वो हल्की बूँदें
फूल पर क़तरा-ए-शबनम का नज़ारा भी है

इतना इतराना भी कुछ ठीक नहीं याद रहे
ज़ीस्त में नफ़अ' भी है और ख़सारा भी है

तैरता जाता हूँ और सोच रहा हूँ 'अंजुम'
इस समुंदर का कहीं कोई किनारा भी है

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