फिर एक दिन
कुछ यूँ बदली किस्मत कठपुतलियों की..
गुलाबो ने सिताबो की आँखों में देखा
सिताबो ने कस कर गुलाबो का हाथ जकड़ा
झटक फेंका नचवैया के कामुक शरीर का बोझा अपनी दुखती देह से
मरोड़ डालीं सब डोरियाँ...
अब गुलाबो आजाद है।
बी गरेड सनीमा देख आती है बेखटके
सीट पर फसट्टा मारे
अलमस्त ठहाके गुंजाती है
द्विअर्थी संवादों पर बेहिसाब सीटियां बजाती है
पर उसपे कोई नहीं झपटता।
भौंचक्की आँखें नाप तौल करती रहतीं हैं बस
न। आसान माल नहीं वो अब
देह की पूँजी कैसे किसपर खरचनी है,जानती है।
कौन सी गाली खींच कब कहाँ मारनी है, पता है
उसे ये भी पता है
पगार बड़वाते वक्त
साहब के आगे पल्लू बस कितना गिराना है
अब मजाल नही खूसट परचूनी की, कि ले जाये फिर से उसे
तंग कोठरी में
दूकान के पिछवाड़े
जब वह दस रूपये का आटा मांगे
बीस की चीनी और चायपत्ती
न ही कोई चाचा मामा भंभोड़ के उसे और रौंद सकता..
अब टटोलते हर हाथ को बेदर्दी से कोंचा करती है।
शहीद पार्क की रेलिंग के पास धुंधलके में
अपनी एक रात का मनमाफिक मोलभाव करती है
गुलाबो खुश है।
खुश तो है सिताबो भी।
गिटपिट करती, मेकअप लादे सितारे सा चमकती
पंचतारा होटल में हो जाये अपनी थोड़ी सी अर्धनग्न नुमायश ,हर्ज़ नहीं
तरक्की के पायदान चढ़ना, इतना भी मुश्किल नहीं
होंठों के त्रिभुज और भवों के वक्र से सौदेबाजी करती है
इश्क़ प्यार के सिक्के विक्के चलन में ही नहीं
जाये, लुढ़कता है तो उसका सिताबा किसी और ठौर
अंटी में दर्जन भर नचवैये अब वो खोंसे चलती है
हाँ पत्नी तो है,पर औरत है वो सबसे पहले
बोली ही लगनी है उसकी ग़र ,तो लगे
पर अपनी क़ीमत तो अब वही तय करती है
हर कसाव का
उठान कटाव गोलाई हर अंगड़ाई का दाम तय है
किसका हो कब कितना इस्तेमाल तय है
यूँ ही नहीं बिक जातीं अब बेमोल
खरीददार बन गयीं अपनी गुलाबो सिताबो
बेचारी नहीं हैं गुलाबो सिताबो
खुश हैं बड़ी अब गुलाबो सिताबो
अब खौफ नही हर आहट का,पीछा करती पदचापों का
रास्ते झपटमार हैं, ये जानती हैं गुलाबो सिताबो।
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