Sunday, August 26, 2018

राखी / सुभद्रा कुमारी चौहान

भैया कृष्ण ! भेजती हूँ मैं
राखी अपनी, यह लो आज ।
कई बार जिसको भेजा है
सजा-सजाकर नूतन साज ।।

लो आओ, भुजदण्ड उठाओ
इस राखी में बँध जाओ ।
भरत - भूमि की रजभूमि को
एक बार फिर दिखलाओ ।।
वीर चरित्र राजपूतों का
पढ़ती हूँ मैं राजस्थान ।
पढ़ते - पढ़ते आँखों में
छा जाता राखी का आख्यान । ।

मैंने पढ़ा, शत्रुओं को भी
जब-जब राखी भिजवायी ।
रक्षा करने दौड़ पड़ा वह
राखी - बन्द - शत्रु - भाई । ।
किन्तु देखना है, यह मेरी
राखी क्या दिखलाती है ।
क्या निस्तेज कलाई पर ही
बँधकर यह रह जाती है ।।
देखो भैया, भेज रही हूँ
तुमको-तुमको राखी आज ।
साखी राजस्थान बनाकर
रख लेना राखी की लाज ।। 

हाथ काँपता, हृदय धड़कता
है मेरी भारी आवाज ।
अब भी चौक-चौक उठता है
जलियाँ का वह गोलन्दाज ।।
यम की सूरत उन पतितों का
पाप भूल जाऊँ कैसे?
अंकित आज हृदय में है
फिर मन को समझाऊँ कैसे ? 
बहिने कई सिसकती हैं हा ।
सिसक न उनकी मिट पायी ।
लाज गँवायी, गाली पाई
तिस पर गोली भी खायी ।।
डर है कही न मार्शल-ला का
फिर से पड़ जावे घेरा ।
ऐसे समय द्रौपदी-जैसा
कृष्ण ! सहारा है तेरा ।।
बोलो, सोच-समझकर बोलो,
क्या राखी बँधवाओगे
भीड़ पडेगी, क्या तुम रक्षा-
करने दौड़े आओगे
यदि हाँ तो यह लो मेरी
इस राखी को स्वीकार करो ।
आकर भैया, बहिन 'सुभद्रा'--
के कष्टों का भार हरो ।।

No comments:

Post a Comment

घरेलू स्त्री / ममता व्यास

जिन्दगी को ही कविता माना उसने जब जैसी, जिस रूप में मिली खूब जतन से पढ़ा, सुना और गुना... वो नहीं जानती तुम्हारी कविताओं के नियम लेकिन उ...