Sunday, January 28, 2018

बात करनी मुझे मुश्किल कभी ऐसी तो न थी / बहादुर शाह ज़फ़र

बात करनी मुझे मुश्किल कभी ऐसी तो थी
जैसी अब है तेरीमहफ़िल कभी ऐसी तो थी
ले गया छीन के कौन आज तेरा सब्र क़रार
बे-क़रारी तुझे दिल कभी ऐसी तो थी
उस की आँखों ने ख़ुदा जाने किया क्या जादू
कि तबीअ'त मेरी माइल कभी ऐसी तो थी
अक्स-ए-रुख़्सार ने किस के है तुझे चमकाया
ताब तुझ में मह-ए-कामिल कभी ऐसी तो थी
अब की जो राह-ए-मोहब्बत में उठाई तकलीफ़
सख़्त होती हमें मंज़िल कभी ऐसी तो थी
पा-ए-कूबाँ कोई ज़िंदाँ में नया है मजनूँ
आती आवाज़-ए-सलासिल कभी ऐसी तो थी
निगह-ए-यार को अब क्यूँ है तग़ाफ़ुल दिल
वो तेरेहाल से ग़ाफ़िल कभी ऐसी तो थी
चश्म-ए-क़ातिल मेरीदुश्मन थी हमेशा लेकिन
जैसी अब हो गई क़ातिल कभी ऐसी तो थी
क्या सबब तू जो बिगड़ता है 'ज़फ़र' से हर बार
ख़ू तेरी हूर-शमाइल कभी ऐसी तो थी

Note: The writer was the last Mughal emperor
andc contemporary of Ghalib.

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