आषाढ केबादल
जमकर बरसे थे
इस बार।
कृषक निकाल लाया
कुदाली, फावङे
संभाल कर रखे कुछ बीज
कुछ सिक्के भी
जो संजोए थे
पूरे साल...गुल्लक में
खेत में लहराती
फसल के सपने
उग आये थे आँखों में।
लाजवंती
हुलस-हुलस कर
बना रही थी रोटी
गीत गाती
दूह रही गाय
अबके इमली का बापू
छुङा लावेगा
मेरे गहने साहुकार से।
बङकी धन्नो
बुहार आई थी
पूरी छत
और
छत के पानी से
भरी हुई बाल्टियाँ
छलक रही थी आंगन में
उसके यौवन की तरहाँ...
वो देख रही थु दर्पण
इस बार हो जाएगा
उसका गौना।
खुश था जमींदार भी
आएंगें किसान, मजदूर
लेने बीज, बैल, टैक्टर
और वह
दूगुने-चौगुने पैसों के
लेनदेन पर
लगवा लेगा
फिर से अंगूठा
एक बार।
सरकार सोच रही थी
टूटी सङक, बंद नाले,
फैलती बीमारियाँ,
आत्महत्या करते
किसानों का ठीकरा
कैसे फोङे
पिछली सरकारों के माथे पर।
आषाढ के बादल
जमकर बरसे थे
इस बार।
Sunday, May 31, 2020
Saturday, May 30, 2020
Happy Marriage / Taslima Nasrin
My life, like a sandbar,
has been taken over by a monster of a man
who wants my body under his control
so that, if he wishes,
he can spit in my face,
slap me on the cheek,
pinch my rear;
so that, if he wishes,
he can rob me of the clothes,
take my naked beauty in his grip;
so that, if he wishes.
he can chain my feet,
with no qualms whatsoever whip me,
chop off my hands, my fingers,
sprinkle salt in the open wound,
throw ground-up black pepper in my eyes,
with a dagger can slash my thigh,
can string me up and hang me.
His goal: to control my heart
so that I would love him;
in my lonely house at night
sleepless, full of anxiety,
clutching at the window grille,
I would wait for him and sob;
tears rolling down, I would bake homemade bread,
would drink, as if they were ambrosia,
the filthy liquids of his polygynous body
so that, loving him, I would melt like wax,
not turning my eyes toward any other man.
I would give proof of my chastity all my life.
So that, loving him,
on some moonlit night
I would commit suicide
in a fit of ecstasy.
has been taken over by a monster of a man
who wants my body under his control
so that, if he wishes,
he can spit in my face,
slap me on the cheek,
pinch my rear;
so that, if he wishes,
he can rob me of the clothes,
take my naked beauty in his grip;
so that, if he wishes.
he can chain my feet,
with no qualms whatsoever whip me,
chop off my hands, my fingers,
sprinkle salt in the open wound,
throw ground-up black pepper in my eyes,
with a dagger can slash my thigh,
can string me up and hang me.
His goal: to control my heart
so that I would love him;
in my lonely house at night
sleepless, full of anxiety,
clutching at the window grille,
I would wait for him and sob;
tears rolling down, I would bake homemade bread,
would drink, as if they were ambrosia,
the filthy liquids of his polygynous body
so that, loving him, I would melt like wax,
not turning my eyes toward any other man.
I would give proof of my chastity all my life.
So that, loving him,
on some moonlit night
I would commit suicide
in a fit of ecstasy.
Friday, May 29, 2020
यादों की यात्रा / कविता पनिया
पहाड़ों से जब मेरे शब्द
गूंजकर प्रतिध्वनि में बदले
तो झाग भरे झरने बनकर लौटे
उन बुलबुलों को मैंने अपनी कलम से फोड़ - फोड़कर कविता बना ली
लिख दी आसमान के कोरे कागज़ पर
जहाँ पंछी अपने पंखों में उसे समेटकर
उस घोंसले में ले जाता है
जो तुम्हारे आंगन वाले नीम के पेड़ पर बना है
मेरा विश्वास है जब पंछी गहन निद्रा में होते हैं
तब तुम सपनों से जागकर उनके पंखों पर लिखी कविता पढ़ते हो
जिसे भोर के स्वर में मैं सुनती हूं
कुछ शब्द अटक जाते हैं
उस नीम की पत्तियों में
जो हवा के साथ टकराने पर एक एक कर गिरते हैं
तुम्हारे आसपास
जिन्हें बीन - बीनकर किताबों में तुम दबाते हो और वह छप जाते हैं
अपने स्वाभाविक हरे रंग में
गूंजकर प्रतिध्वनि में बदले
तो झाग भरे झरने बनकर लौटे
उन बुलबुलों को मैंने अपनी कलम से फोड़ - फोड़कर कविता बना ली
लिख दी आसमान के कोरे कागज़ पर
जहाँ पंछी अपने पंखों में उसे समेटकर
उस घोंसले में ले जाता है
जो तुम्हारे आंगन वाले नीम के पेड़ पर बना है
मेरा विश्वास है जब पंछी गहन निद्रा में होते हैं
तब तुम सपनों से जागकर उनके पंखों पर लिखी कविता पढ़ते हो
जिसे भोर के स्वर में मैं सुनती हूं
कुछ शब्द अटक जाते हैं
उस नीम की पत्तियों में
जो हवा के साथ टकराने पर एक एक कर गिरते हैं
तुम्हारे आसपास
जिन्हें बीन - बीनकर किताबों में तुम दबाते हो और वह छप जाते हैं
अपने स्वाभाविक हरे रंग में
Thursday, May 28, 2020
ख़ामोश रह कर भी सब कुछ सुना देना / क़मर जलालवी
मिरा ख़ामोश रह कर भी उन्हें सब कुछ सुना देना
ज़बाँ से कुछ न कहना देख कर आँसू बहा देना
नशेमन हो न हो ये तो फ़लक का मश्ग़ला ठहरा
कि दो तिनके जहाँ पर देखना बिजली गिरा देना
मैं इस हालत से पहुँचा हश्र वाले ख़ुद पुकार उठ्ठे
कोई फ़रियाद वाला आ रहा है रास्ता देना
इजाज़त हो तो कह दूँ क़िस्सा-ए-उल्फ़त सर-ए-महफ़िल
मुझे कुछ तो फ़साना याद है कुछ तुम सुना देना
मैं मुजरिम हूँ मुझे इक़रार है जुर्म-ए-मोहब्बत का
मगर पहले तो ख़त पर ग़ौर कर लो फिर सज़ा देना
हटा कर रुख़ से गेसू सुब्ह कर देना तो मुमकिन है
मगर सरकार के बस में नहीं तारे छुपा देना
हटा कर रुख़ से गेसू सुब्ह कर देना तो मुमकिन है
मगर सरकार के बस में नहीं तारे छुपा देना
ये तहज़ीब-ए-चमन बदली है बैरूनी हवाओं ने
गरेबाँ-चाक फूलों पर कली का मुस्कुरा देना
'क़मर' वो सब से छुप कर आ रहे हैं फ़ातिहा पढ़ने
कहूँ किस से कि मेरी शम-ए-तुर्बत को बुझा देना
ज़बाँ से कुछ न कहना देख कर आँसू बहा देना
नशेमन हो न हो ये तो फ़लक का मश्ग़ला ठहरा
कि दो तिनके जहाँ पर देखना बिजली गिरा देना
मैं इस हालत से पहुँचा हश्र वाले ख़ुद पुकार उठ्ठे
कोई फ़रियाद वाला आ रहा है रास्ता देना
इजाज़त हो तो कह दूँ क़िस्सा-ए-उल्फ़त सर-ए-महफ़िल
मुझे कुछ तो फ़साना याद है कुछ तुम सुना देना
मैं मुजरिम हूँ मुझे इक़रार है जुर्म-ए-मोहब्बत का
मगर पहले तो ख़त पर ग़ौर कर लो फिर सज़ा देना
हटा कर रुख़ से गेसू सुब्ह कर देना तो मुमकिन है
मगर सरकार के बस में नहीं तारे छुपा देना
हटा कर रुख़ से गेसू सुब्ह कर देना तो मुमकिन है
मगर सरकार के बस में नहीं तारे छुपा देना
ये तहज़ीब-ए-चमन बदली है बैरूनी हवाओं ने
गरेबाँ-चाक फूलों पर कली का मुस्कुरा देना
'क़मर' वो सब से छुप कर आ रहे हैं फ़ातिहा पढ़ने
कहूँ किस से कि मेरी शम-ए-तुर्बत को बुझा देना
Wednesday, May 27, 2020
Triste, Triste / Gwen Harwood
In the space between love and sleep
when heart mourns in its prison
eyes against shoulder keep
their blood-black curtains tight.
Body rolls back like a stone, and risen
spirit walks to Easter light;
away from its tomb of bone,
away from the guardian tents
of eyesight, walking alone
to unbearable light with angelic
gestures. The fallen instruments
of its passion lie in the relic
darkness of sleep and love.
And heart from its prison cries
to the spirit walking above:
'I was with you in agony.
Remember your promise of paradise,'
and hammers and hammers, 'remember me.'
when heart mourns in its prison
eyes against shoulder keep
their blood-black curtains tight.
Body rolls back like a stone, and risen
spirit walks to Easter light;
away from its tomb of bone,
away from the guardian tents
of eyesight, walking alone
to unbearable light with angelic
gestures. The fallen instruments
of its passion lie in the relic
darkness of sleep and love.
And heart from its prison cries
to the spirit walking above:
'I was with you in agony.
Remember your promise of paradise,'
and hammers and hammers, 'remember me.'
Tuesday, May 26, 2020
Redbird Love / Joy Harjo
We watched her grow up.
She was the urgent chirper,
Fledgling flier.
And when spring rolled
Out its green
She’d grown
Into the most noticeable
Bird-girl.
Long-legged and just
The right amount of blush
Tipping her wings, crest
And tail, and
She knew it
In the bird parade.
We watched her strut.
She owned her stuff.
The males perked their armor, greased their wings,
And flew sky-loop missions
To show off
For her.
In the end
There was only one.
Isn’t that how it is for all of us?
There’s that one you circle back to — for home.
This morning
The young couple scavenges seeds
On the patio.
She is thickening with eggs.
Their minds are busy with sticks the perfect size, tufts of fluff
Like dandelion, and other pieces of soft.
He steps aside for her, so she can eat.
Then we watch him fill his beak
Walk tenderly to her and kiss her with seed.
The sacred world lifts up its head
To notice —
We are double-, triple-blessed.
She was the urgent chirper,
Fledgling flier.
And when spring rolled
Out its green
She’d grown
Into the most noticeable
Bird-girl.
Long-legged and just
The right amount of blush
Tipping her wings, crest
And tail, and
She knew it
In the bird parade.
We watched her strut.
She owned her stuff.
The males perked their armor, greased their wings,
And flew sky-loop missions
To show off
For her.
In the end
There was only one.
Isn’t that how it is for all of us?
There’s that one you circle back to — for home.
This morning
The young couple scavenges seeds
On the patio.
She is thickening with eggs.
Their minds are busy with sticks the perfect size, tufts of fluff
Like dandelion, and other pieces of soft.
He steps aside for her, so she can eat.
Then we watch him fill his beak
Walk tenderly to her and kiss her with seed.
The sacred world lifts up its head
To notice —
We are double-, triple-blessed.
Monday, May 25, 2020
ईद मुबारक / केदारनाथ अग्रवाल
हमको,
तुमको,
एक-दूसरे की बाहों में
बँध जाने की
ईद मुबारक।
बँधे-बँधे,
रह एक वृंत पर,
खोल-खोल कर प्रिय पंखुरियाँ
कमल-कमल-सा
खिल जाने की,
रूप-रंग से मुसकाने की
हमको,
तुमको
ईद मुबारक।
और
जगत के
इस जीवन के
खारे पानी के सागर में
खिले कमल की नाव चलाने,
हँसी-खुशी से
तर जाने की,
हमको,
तुमको
ईद मुबारक।
और
समर के
उन शूरों को
अनुबुझ ज्वाला की आशीषें,
बाहर बिजली की आशीषें
और हमारे दिल से निकली-
सूरज, चाँद,
सितारों वाली
हमदर्दी की प्यारी प्यारी
ईद मुबारक।
हमको,
तुमको
सब को अपनी
मीठी-मीठी
ईद-मुबारक।
तुमको,
एक-दूसरे की बाहों में
बँध जाने की
ईद मुबारक।
बँधे-बँधे,
रह एक वृंत पर,
खोल-खोल कर प्रिय पंखुरियाँ
कमल-कमल-सा
खिल जाने की,
रूप-रंग से मुसकाने की
हमको,
तुमको
ईद मुबारक।
और
जगत के
इस जीवन के
खारे पानी के सागर में
खिले कमल की नाव चलाने,
हँसी-खुशी से
तर जाने की,
हमको,
तुमको
ईद मुबारक।
और
समर के
उन शूरों को
अनुबुझ ज्वाला की आशीषें,
बाहर बिजली की आशीषें
और हमारे दिल से निकली-
सूरज, चाँद,
सितारों वाली
हमदर्दी की प्यारी प्यारी
ईद मुबारक।
हमको,
तुमको
सब को अपनी
मीठी-मीठी
ईद-मुबारक।
Sunday, May 24, 2020
Because She Would Ask Me Why I Loved Her / Christopher John Brennan
If questioning would make us wise
No eyes would ever gaze in eyes;
If all our tale were told in speech
No mouths would wander each to each.
Were spirits free from mortal mesh
And love not bound in hearts of flesh
No aching breasts would yearn to meet
And find their ecstasy complete.
For who is there that lives and knows
The secret powers by which he grows?
Were knowledge all, what were our need
To thrill and faint and sweetly bleed?
Then seek not, sweet, the "If" and "Why"
I love you now until I die.
For I must love because I live
And life in me is what you give.
No eyes would ever gaze in eyes;
If all our tale were told in speech
No mouths would wander each to each.
Were spirits free from mortal mesh
And love not bound in hearts of flesh
No aching breasts would yearn to meet
And find their ecstasy complete.
For who is there that lives and knows
The secret powers by which he grows?
Were knowledge all, what were our need
To thrill and faint and sweetly bleed?
Then seek not, sweet, the "If" and "Why"
I love you now until I die.
For I must love because I live
And life in me is what you give.
Saturday, May 23, 2020
आदमी ज़िन्दा रहे किस आस पर / दरवेश भारती
आदमी ज़िन्दा रहे किस आस पर
छा रहा हो जब तमस विश्वास पर
भर न पाये गर्मजोशी से ख़याल
इस क़दर पाला पड़ा एहसास पर
वेदनाएँ दस्तकें देने लगें
इतना मत इतराइये उल्लास पर
जो हो खुद फैला रहा घर-घर इसे
पायेगा क़ाबू वो क्या सन्त्रास पर
नासमझ था, देखा सागर की तरफ़
जब न संयम रख सका वो प्यास पर
सत्य का पंछी भरेगा क्या उड़ान
पहरुआ हो झूठ जब आवास पर
दुख को भारी पड़ते देखा है कभी
आपने 'दरवेश' हास-उपहास पर
छा रहा हो जब तमस विश्वास पर
भर न पाये गर्मजोशी से ख़याल
इस क़दर पाला पड़ा एहसास पर
वेदनाएँ दस्तकें देने लगें
इतना मत इतराइये उल्लास पर
जो हो खुद फैला रहा घर-घर इसे
पायेगा क़ाबू वो क्या सन्त्रास पर
नासमझ था, देखा सागर की तरफ़
जब न संयम रख सका वो प्यास पर
सत्य का पंछी भरेगा क्या उड़ान
पहरुआ हो झूठ जब आवास पर
दुख को भारी पड़ते देखा है कभी
आपने 'दरवेश' हास-उपहास पर
Friday, May 22, 2020
लौट शहर से आते भाई / धीरज श्रीवास्तव
लौट शहर से आते भाई!
कुछ तो फर्ज निभाते भाई!
चाचा की गाँठों में, पीड़ा
रोज बहुत ही होती है!
चाची भी है दुख की मारी
बैठ अकेले रोती है!
छूट गया है खाना पीना
आकर दवा कराते भाई!
पहन चूड़ियाँ लीं तुमने या
मुँह पर कालिख पोत लिया!
जबरन उसने खेत तुम्हारा
पूरब वाला जोत लिया!
आते तुम इस कलुआ को हम
मिलकर सबक सिखाते भाई!
रामलाल की बेटी सुगवा
उसकी ठनी सगाई है!
जेठ महीने की दशमी को
निश्चित हुई विदाई है!
पूछ रही थी हाल तुम्हारा
उससे मिलकर जाते भाई!
इधर हमारे बप्पा भी तो
इस दुनिया से चले गये!
तीरथ व्रत सारे कर डाले
चलते फिरते भले गये!
दिल की थी बीमारी पर वे
हरदम रहे छुपाते भाई!
बात नहीं कोई चिन्ता की
देखभाल कर लेता हूँ!
गाय भैंस को सानी भूसा
पानी तक भर देता हूँ!
और ठीक पर तुम चल देना
फौरन खत को पाते भाई!
कुछ तो फर्ज निभाते भाई!
चाचा की गाँठों में, पीड़ा
रोज बहुत ही होती है!
चाची भी है दुख की मारी
बैठ अकेले रोती है!
छूट गया है खाना पीना
आकर दवा कराते भाई!
पहन चूड़ियाँ लीं तुमने या
मुँह पर कालिख पोत लिया!
जबरन उसने खेत तुम्हारा
पूरब वाला जोत लिया!
आते तुम इस कलुआ को हम
मिलकर सबक सिखाते भाई!
रामलाल की बेटी सुगवा
उसकी ठनी सगाई है!
जेठ महीने की दशमी को
निश्चित हुई विदाई है!
पूछ रही थी हाल तुम्हारा
उससे मिलकर जाते भाई!
इधर हमारे बप्पा भी तो
इस दुनिया से चले गये!
तीरथ व्रत सारे कर डाले
चलते फिरते भले गये!
दिल की थी बीमारी पर वे
हरदम रहे छुपाते भाई!
बात नहीं कोई चिन्ता की
देखभाल कर लेता हूँ!
गाय भैंस को सानी भूसा
पानी तक भर देता हूँ!
और ठीक पर तुम चल देना
फौरन खत को पाते भाई!
Thursday, May 21, 2020
Backward / William Carlos Williams
A three-day-long rain from the east--
an terminable talking, talking
of no consequence--patter, patter, patter.
Hand in hand little winds
blow the thin streams aslant.
Warm. Distance cut off. Seclusion.
A few passers-by, drawn in upon themselves,
hurry from one place to another.
Winds of the white poppy! there is no escape!--
An interminable talking, talking,
talking . . .it has happened before.
Backward, backward, backward.
an terminable talking, talking
of no consequence--patter, patter, patter.
Hand in hand little winds
blow the thin streams aslant.
Warm. Distance cut off. Seclusion.
A few passers-by, drawn in upon themselves,
hurry from one place to another.
Winds of the white poppy! there is no escape!--
An interminable talking, talking,
talking . . .it has happened before.
Backward, backward, backward.
Wednesday, May 20, 2020
हम को मन की शक्ति देना / गुलज़ार
हम को मन की शक्ति देना, मन विजय करें
दूसरो की जय से पहले, ख़ुद को जय करें।
भेद भाव अपने दिल से साफ कर सकें
दोस्तों से भूल हो तो माफ़ कर सके
झूठ से बचे रहें, सच का दम भरें
दूसरो की जय से पहले ख़ुद को जय करें
हमको मन की शक्ति देना।
मुश्किलें पड़े तो हम पे, इतना कर्म कर
साथ दें तो धर्म का चलें तो धर्म पर
ख़ुद पर हौसला रहें बदी से न डरें
दूसरों की जय से पहले ख़ुद को जय करें
हमको मन की शक्ति देना, मन विजय करें।
दूसरो की जय से पहले, ख़ुद को जय करें।
भेद भाव अपने दिल से साफ कर सकें
दोस्तों से भूल हो तो माफ़ कर सके
झूठ से बचे रहें, सच का दम भरें
दूसरो की जय से पहले ख़ुद को जय करें
हमको मन की शक्ति देना।
मुश्किलें पड़े तो हम पे, इतना कर्म कर
साथ दें तो धर्म का चलें तो धर्म पर
ख़ुद पर हौसला रहें बदी से न डरें
दूसरों की जय से पहले ख़ुद को जय करें
हमको मन की शक्ति देना, मन विजय करें।
Tuesday, May 19, 2020
कुछ तो हवा भी सर्द थी / परवीन शाकिर
कुछ तो हवा भी सर्द थी कुछ था तिरा ख़याल भी
दिल को ख़ुशी के साथ साथ होता रहा मलाल भी
बात वो आधी रात की रात वो पूरे चाँद की
चाँद भी ऐन चैत का उस पे तिरा जमाल भी
सब से नज़र बचा के वो मुझ को कुछ ऐसे देखता
एक दफ़ा तो रुक गई गर्दिश-ए-माह-ओ-साल भी
दिल तो चमक सकेगा क्या फिर भी तराश के देख लें
शीशा-गिरान-ए-शहर के हाथ का ये कमाल भी
उस को न पा सके थे जब दिल का अजीब हाल था
अब जो पलट के देखिए बात थी कुछ मुहाल भी
मेरी तलब था एक शख़्स वो जो नहीं मिला तो फिर
हाथ दुआ से यूँ गिरा भूल गया सवाल भी
उस की सुख़न-तराज़ियाँ मेरे लिए भी ढाल थीं
उस की हँसी में छुप गया अपने ग़मों का हाल भी
गाह क़रीब-ए-शाह-रग गाह बईद-ए-वहम-ओ-ख़्वाब
उस की रफ़ाक़तों में रात हिज्र भी था विसाल भी
उस के ही बाज़ुओं में और उस को ही सोचते रहे
जिस्म की ख़्वाहिशों पे थे रूह के और जाल भी
शाम की ना-समझ हवा पूछ रही है इक पता
मौज-ए-हवा-ए-कू-ए-यार कुछ तो मिरा ख़याल भी
दिल को ख़ुशी के साथ साथ होता रहा मलाल भी
बात वो आधी रात की रात वो पूरे चाँद की
चाँद भी ऐन चैत का उस पे तिरा जमाल भी
सब से नज़र बचा के वो मुझ को कुछ ऐसे देखता
एक दफ़ा तो रुक गई गर्दिश-ए-माह-ओ-साल भी
दिल तो चमक सकेगा क्या फिर भी तराश के देख लें
शीशा-गिरान-ए-शहर के हाथ का ये कमाल भी
उस को न पा सके थे जब दिल का अजीब हाल था
अब जो पलट के देखिए बात थी कुछ मुहाल भी
मेरी तलब था एक शख़्स वो जो नहीं मिला तो फिर
हाथ दुआ से यूँ गिरा भूल गया सवाल भी
उस की सुख़न-तराज़ियाँ मेरे लिए भी ढाल थीं
उस की हँसी में छुप गया अपने ग़मों का हाल भी
गाह क़रीब-ए-शाह-रग गाह बईद-ए-वहम-ओ-ख़्वाब
उस की रफ़ाक़तों में रात हिज्र भी था विसाल भी
उस के ही बाज़ुओं में और उस को ही सोचते रहे
जिस्म की ख़्वाहिशों पे थे रूह के और जाल भी
शाम की ना-समझ हवा पूछ रही है इक पता
मौज-ए-हवा-ए-कू-ए-यार कुछ तो मिरा ख़याल भी
Monday, May 18, 2020
Poet's Mood / Francis Beaumont and John Fletcher
Hence, all you vain delights,
As short as are the nights
Wherein you spend your folly!
There's nought in this life sweet,
If man were wise to see it,
But only melancholy;
Oh, sweetest melancholy!
Welcome folded arms, and fixed eyes,
A sigh that piercing mortifies,
A look that's fastened to the ground,
A tongue chained up, without a sound!
Fountain-head and pathless groves,
Places which pale passion loves!
Moonlight walks, when all the fowls
Are warmly housed, save bats and owls!
A midnight bell, a parting groan!
These are the sounds we feed upon;
Then stretch our bones in a still gloomy valley:
Nothing's so dainty sweet as lovely melancholy.
As short as are the nights
Wherein you spend your folly!
There's nought in this life sweet,
If man were wise to see it,
But only melancholy;
Oh, sweetest melancholy!
Welcome folded arms, and fixed eyes,
A sigh that piercing mortifies,
A look that's fastened to the ground,
A tongue chained up, without a sound!
Fountain-head and pathless groves,
Places which pale passion loves!
Moonlight walks, when all the fowls
Are warmly housed, save bats and owls!
A midnight bell, a parting groan!
These are the sounds we feed upon;
Then stretch our bones in a still gloomy valley:
Nothing's so dainty sweet as lovely melancholy.
Sunday, May 17, 2020
दाएँ- बाएँ / अखिलेश श्रीवास्तव
संसद दाईं तरफ है
7 RCR दाईं तरफ है
नीति आयोग दाईं तरफ है
यहाँ तक कि साहित्य अकादमी
दाईं तरफ है
और सर्वोच्च न्यायालय भी!
वो खींच लेना चाहते है
सारी जमीन, सारी नदियाँ, सारा जंगल दाहिनी तरफ ही!
हमसे कहा जा रहा है
आप सभ्य नागरिक हैं
नियमो का पालन
मुस्तैदी से करे
हमेशा बायें तरफ चलें!
मै इस स्वतंत्र, संप्रभु गणराज्य में
कुत्ता बनना चाहता हूँ
जो यूँ ही चलते-चलते
बेधड़क घुसता है कहीं भी
बिना खदेड़े जाने का खौफ लिए!
7 RCR दाईं तरफ है
नीति आयोग दाईं तरफ है
यहाँ तक कि साहित्य अकादमी
दाईं तरफ है
और सर्वोच्च न्यायालय भी!
वो खींच लेना चाहते है
सारी जमीन, सारी नदियाँ, सारा जंगल दाहिनी तरफ ही!
हमसे कहा जा रहा है
आप सभ्य नागरिक हैं
नियमो का पालन
मुस्तैदी से करे
हमेशा बायें तरफ चलें!
मै इस स्वतंत्र, संप्रभु गणराज्य में
कुत्ता बनना चाहता हूँ
जो यूँ ही चलते-चलते
बेधड़क घुसता है कहीं भी
बिना खदेड़े जाने का खौफ लिए!
Saturday, May 16, 2020
मैं अहिल्या नहीं बनूंगी / अंजू शर्मा
हाँ मेरा मन
आकर्षित है
उस दृष्टि के लिए,
जो उत्पन्न करती है
मेरे मन में
एक लुभावना कम्पन,
किन्तु
शापित नहीं होना है मुझे,
क्योंकि मैं नकारती हूँ
उस विवशता को
जहाँ सदियाँ गुजर जाती हैं
एक राम की प्रतीक्षा में,
इस बार मुझे सीखना है
फर्क
इन्द्र और गौतम की दृष्टि का
वाकिफ हूँ मैं शाप के दंश से
पाषाण से स्त्री बनने
की पीड़ा से,
लहू-लुहान हुए अस्तित्व को
सतर करने की प्रक्रिया से,
किसी दृष्टि में
सदानीरा सा बहता रस प्लावन
अदृश्य अनकहा नहीं है
मेरे लिए,
और मन जो भाग रहा है
बेलगाम घोड़े सा,
निहारता है उस
मृग मरीचिका को,
उसे थामती हूँ मैं
किसी हठी बालक सा
मांगता है चंद्रखिलौना,
क्यों नहीं मानता
कि आज किसी शाप की कामना
नहीं है मुझे
कामनाओं के पैराहन के
कोने को
गांठ लगा ली है
समझदारी की
जगा लिया है अपनी चेतना को
हाँ ये तय है
मैं अहिल्या नहीं बनूंगी!
आकर्षित है
उस दृष्टि के लिए,
जो उत्पन्न करती है
मेरे मन में
एक लुभावना कम्पन,
किन्तु
शापित नहीं होना है मुझे,
क्योंकि मैं नकारती हूँ
उस विवशता को
जहाँ सदियाँ गुजर जाती हैं
एक राम की प्रतीक्षा में,
इस बार मुझे सीखना है
फर्क
इन्द्र और गौतम की दृष्टि का
वाकिफ हूँ मैं शाप के दंश से
पाषाण से स्त्री बनने
की पीड़ा से,
लहू-लुहान हुए अस्तित्व को
सतर करने की प्रक्रिया से,
किसी दृष्टि में
सदानीरा सा बहता रस प्लावन
अदृश्य अनकहा नहीं है
मेरे लिए,
और मन जो भाग रहा है
बेलगाम घोड़े सा,
निहारता है उस
मृग मरीचिका को,
उसे थामती हूँ मैं
किसी हठी बालक सा
मांगता है चंद्रखिलौना,
क्यों नहीं मानता
कि आज किसी शाप की कामना
नहीं है मुझे
कामनाओं के पैराहन के
कोने को
गांठ लगा ली है
समझदारी की
जगा लिया है अपनी चेतना को
हाँ ये तय है
मैं अहिल्या नहीं बनूंगी!
Friday, May 15, 2020
A Hope / Charles Kingsley
Twin stars, aloft in ether clear,
Around each other roll alway,
Within one common atmosphere
Of their own mutual light and day.
And myriad happy eyes are bent
Upon their changeless love alway;
As, strengthened by their one intent,
They pour the flood of life and day.
So we through this world's waning night
May, hand in hand, pursue our way;
Shed round us order, love, and light,
And shine unto the perfect day.
Around each other roll alway,
Within one common atmosphere
Of their own mutual light and day.
And myriad happy eyes are bent
Upon their changeless love alway;
As, strengthened by their one intent,
They pour the flood of life and day.
So we through this world's waning night
May, hand in hand, pursue our way;
Shed round us order, love, and light,
And shine unto the perfect day.
Thursday, May 14, 2020
कैसे मैं पैबन्द लगाऊँ / धीरज श्रीवास्तव
कैसे मैं पैबन्द लगाऊँ?
उलझ गये जीवन के धागे!
यदि हाथ लगाऊँ जो अपना
हो जाये सोना भी माटी!
ऊपर से पुरखे समझाते
हैं याद दिलाते परिपाटी!
दूजे देकर फर्ज चुनौती
दो-दो हाथ करे तब भागे!
कैसे मैं पैबन्द लगाऊँ?
उलझ गये जीवन के धागे!
इक ओर सुखों की इच्छा है
औ इधर निमन्त्रण है दुख का!
है धुंध बहुत ही अंतस में
सब रंग उड़ चुका है मुख का!
किन्तु गरीबी बैठ हमारी
उलझन की बस कथरी तागे!
कैसे मैं पैबन्द लगाऊँ?
उलझ गये जीवन के धागे!
कर्ज करे आँगन में नर्तन
छाती पर मूँग दले बनिया!
खाली-खाली बोझिल बर्तन
बैठ भूख से रोये धनिया!
भाग रहे हम पीछे पीछे
अम्मा की बीमारी आगे!
कैसे मैं पैबन्द लगाऊँ?
उलझ गये जीवन के धागे!
ये जग हँसता है देख मुझे
राहों के पत्थर टकरायें!
ये शीतल मंद हवायें भी
भीतर से मुझको दहकायें!
और ज़रूरत सिर पर चढ़कर
हरदम एक पटाखा दागे!
कैसे मैं पैबन्द लगाऊँ?
उलझ गये जीवन के धागे!
बूँद पसीने की लेकर मैं
गूँथ रहा कर्मों का आटा!
राह तकी है मैंने तेरी
सोच तुम्हें ही जीवन काटा!
ऐ भाग्य तुम्हारे खातिर ही
अब तक मेरी आशा जागे!
कैसे मैं पैबन्द लगाऊँ?
उलझ गये जीवन के धागे!
उलझ गये जीवन के धागे!
यदि हाथ लगाऊँ जो अपना
हो जाये सोना भी माटी!
ऊपर से पुरखे समझाते
हैं याद दिलाते परिपाटी!
दूजे देकर फर्ज चुनौती
दो-दो हाथ करे तब भागे!
कैसे मैं पैबन्द लगाऊँ?
उलझ गये जीवन के धागे!
इक ओर सुखों की इच्छा है
औ इधर निमन्त्रण है दुख का!
है धुंध बहुत ही अंतस में
सब रंग उड़ चुका है मुख का!
किन्तु गरीबी बैठ हमारी
उलझन की बस कथरी तागे!
कैसे मैं पैबन्द लगाऊँ?
उलझ गये जीवन के धागे!
कर्ज करे आँगन में नर्तन
छाती पर मूँग दले बनिया!
खाली-खाली बोझिल बर्तन
बैठ भूख से रोये धनिया!
भाग रहे हम पीछे पीछे
अम्मा की बीमारी आगे!
कैसे मैं पैबन्द लगाऊँ?
उलझ गये जीवन के धागे!
ये जग हँसता है देख मुझे
राहों के पत्थर टकरायें!
ये शीतल मंद हवायें भी
भीतर से मुझको दहकायें!
और ज़रूरत सिर पर चढ़कर
हरदम एक पटाखा दागे!
कैसे मैं पैबन्द लगाऊँ?
उलझ गये जीवन के धागे!
बूँद पसीने की लेकर मैं
गूँथ रहा कर्मों का आटा!
राह तकी है मैंने तेरी
सोच तुम्हें ही जीवन काटा!
ऐ भाग्य तुम्हारे खातिर ही
अब तक मेरी आशा जागे!
कैसे मैं पैबन्द लगाऊँ?
उलझ गये जीवन के धागे!
Wednesday, May 13, 2020
These Are The Hands / Michael Rosen
These are the hands
That touch us first
Feel your head
Find the pulse
And make your bed.
These are the hands
That tap your back
Test the skin
Hold your arm
Wheel the bin
Change the bulb
Fix the drip
Pour the jug
Replace your hip.
These are the hands
That fill the bath
Mop the floor
Flick the switch
Soothe the sore
Burn the swabs
Give us a jab
Throw out sharps
Design the lab.
And these are the hands
That stop the leaks
Empty the pan
Wipe the pipes
Carry the can
Clamp the veins
Make the cast
Log the dose
And touch us last.
(Dedicated to all the Nurses who are always in the shadows of doctors and often don't get their due recognition)
That touch us first
Feel your head
Find the pulse
And make your bed.
These are the hands
That tap your back
Test the skin
Hold your arm
Wheel the bin
Change the bulb
Fix the drip
Pour the jug
Replace your hip.
These are the hands
That fill the bath
Mop the floor
Flick the switch
Soothe the sore
Burn the swabs
Give us a jab
Throw out sharps
Design the lab.
And these are the hands
That stop the leaks
Empty the pan
Wipe the pipes
Carry the can
Clamp the veins
Make the cast
Log the dose
And touch us last.
(Dedicated to all the Nurses who are always in the shadows of doctors and often don't get their due recognition)
Tuesday, May 12, 2020
What Are Big Girls Made Of? / Marge Piercy
The construction of a woman:
a woman is not made of flesh
of bone and sinew
belly and breasts, elbows and liver and toe.
She is manufactured like a sports sedan.
She is retooled, refitted and redesigned
every decade.
Cecile had been seduction itself in college.
She wriggled through bars like a satin eel,
her hips and ass promising, her mouth pursed
in the dark red lipstick of desire.
She visited in '68 still wearing skirts
tight to the knees, dark red lipstick,
while I danced through Manhattan in mini skirt,
lipstick pale as apricot milk,
hair loose as a horse's mane. Oh dear,
I thought in my superiority of the moment,
whatever has happened to poor Cecile?
She was out of fashion, out of the game,
disqualified, disdained, dis-
membered from the club of desire.
Look at pictures in French fashion
magazines of the 18th century:
century of the ultimate lady
fantasy wrought of silk and corseting.
Paniers bring her hips out three feet
each way, while the waist is pinched
and the belly flattened under wood.
The breasts are stuffed up and out
offered like apples in a bowl.
The tiny foot is encased in a slipper
never meant for walking.
On top is a grandiose headache:
hair like a museum piece, daily
ornamented with ribbons, vases,
grottoes, mountains, frigates in full
sail, balloons, baboons, the fancy
of a hairdresser turned loose.
The hats were rococo wedding cakes
that would dim the Las Vegas strip.
Here is a woman forced into shape
rigid exoskeleton torturing flesh:
a woman made of pain.
How superior we are now: see the modern woman
thin as a blade of scissors.
She runs on a treadmill every morning,
fits herself into machines of weights
and pulleys to heave and grunt,
an image in her mind she can never
approximate, a body of rosy
glass that never wrinkles,
never grows, never fades. She
sits at the table closing her eyes to food
hungry, always hungry:
a woman made of pain.
A cat or dog approaches another,
they sniff noses. They sniff asses.
They bristle or lick. They fall
in love as often as we do,
as passionately. But they fall
in love or lust with furry flesh,
not hoop skirts or push up bras
rib removal or liposuction.
It is not for male or female dogs
that poodles are clipped
to topiary hedges.
If only we could like each other raw.
If only we could love ourselves
like healthy babies burbling in our arms.
If only we were not programmed and reprogrammed
to need what is sold us.
Why should we want to live inside ads?
Why should we want to scourge our softness
to straight lines like a Mondrian painting?
Why should we punish each other with scorn
as if to have a large ass
were worse than being greedy or mean?
When will women not be compelled
to view their bodies as science projects,
gardens to be weeded,
dogs to be trained?
When will a woman cease
to be made of pain?
a woman is not made of flesh
of bone and sinew
belly and breasts, elbows and liver and toe.
She is manufactured like a sports sedan.
She is retooled, refitted and redesigned
every decade.
Cecile had been seduction itself in college.
She wriggled through bars like a satin eel,
her hips and ass promising, her mouth pursed
in the dark red lipstick of desire.
She visited in '68 still wearing skirts
tight to the knees, dark red lipstick,
while I danced through Manhattan in mini skirt,
lipstick pale as apricot milk,
hair loose as a horse's mane. Oh dear,
I thought in my superiority of the moment,
whatever has happened to poor Cecile?
She was out of fashion, out of the game,
disqualified, disdained, dis-
membered from the club of desire.
Look at pictures in French fashion
magazines of the 18th century:
century of the ultimate lady
fantasy wrought of silk and corseting.
Paniers bring her hips out three feet
each way, while the waist is pinched
and the belly flattened under wood.
The breasts are stuffed up and out
offered like apples in a bowl.
The tiny foot is encased in a slipper
never meant for walking.
On top is a grandiose headache:
hair like a museum piece, daily
ornamented with ribbons, vases,
grottoes, mountains, frigates in full
sail, balloons, baboons, the fancy
of a hairdresser turned loose.
The hats were rococo wedding cakes
that would dim the Las Vegas strip.
Here is a woman forced into shape
rigid exoskeleton torturing flesh:
a woman made of pain.
How superior we are now: see the modern woman
thin as a blade of scissors.
She runs on a treadmill every morning,
fits herself into machines of weights
and pulleys to heave and grunt,
an image in her mind she can never
approximate, a body of rosy
glass that never wrinkles,
never grows, never fades. She
sits at the table closing her eyes to food
hungry, always hungry:
a woman made of pain.
A cat or dog approaches another,
they sniff noses. They sniff asses.
They bristle or lick. They fall
in love as often as we do,
as passionately. But they fall
in love or lust with furry flesh,
not hoop skirts or push up bras
rib removal or liposuction.
It is not for male or female dogs
that poodles are clipped
to topiary hedges.
If only we could like each other raw.
If only we could love ourselves
like healthy babies burbling in our arms.
If only we were not programmed and reprogrammed
to need what is sold us.
Why should we want to live inside ads?
Why should we want to scourge our softness
to straight lines like a Mondrian painting?
Why should we punish each other with scorn
as if to have a large ass
were worse than being greedy or mean?
When will women not be compelled
to view their bodies as science projects,
gardens to be weeded,
dogs to be trained?
When will a woman cease
to be made of pain?
Monday, May 11, 2020
नाम अदा लिखना / गुलज़ार
पूछे जो कोई मेरी निशानी, रंग हिना लिखना
गोरे बदन पे ऊँगली से मेरा नाम अदा लिखना
कभी कभी आस पास चाँद रहता है
कभी कभी आस पास शाम रहती है
आओ ना आओ ना झेलम में बह लेंगे
वादी के मौसम भी इक दिन तो बदलेंगे
कभी कभी आस पास चाँद रहता है
कभी कभी आस पास शाम रहती है
आऊं तो सुबह, जाऊं तो मेरा नाम सबा लिखना
बर्फ पड़े तो बर्फ पे मेरा नाम दुआ लिखना
ज़रा ज़रा आग-वाग पास रहती है
ज़रा ज़रा कांगड़ी की आंच रहती है
कभी कभी आस पास चाँद रहता है
कभी कभी आस पास शाम रहती है
शामें बुझाने आती हैं रातें
रातें बुझाने तुम आ गए हो
जब तुम हँसते हो दिन हो जाता है
तुम गले लगो तो दिन सो जाता है
डोली उठाये आएगा दिन तो पास बिठा लेना
कल जो मिले तो माथे पे मेरे सूरज ऊगा देना
ज़रा ज़रा आस पास धूप रहेगी
ज़रा ज़रा आस पास रंग रहेंगे
पूछे जो कोई मेरी निशानी, रंग हिना लिखना
गोरे बदन पे ऊँगली से मेरा नाम अदा लिखना..
गोरे बदन पे ऊँगली से मेरा नाम अदा लिखना
कभी कभी आस पास चाँद रहता है
कभी कभी आस पास शाम रहती है
आओ ना आओ ना झेलम में बह लेंगे
वादी के मौसम भी इक दिन तो बदलेंगे
कभी कभी आस पास चाँद रहता है
कभी कभी आस पास शाम रहती है
आऊं तो सुबह, जाऊं तो मेरा नाम सबा लिखना
बर्फ पड़े तो बर्फ पे मेरा नाम दुआ लिखना
ज़रा ज़रा आग-वाग पास रहती है
ज़रा ज़रा कांगड़ी की आंच रहती है
कभी कभी आस पास चाँद रहता है
कभी कभी आस पास शाम रहती है
शामें बुझाने आती हैं रातें
रातें बुझाने तुम आ गए हो
जब तुम हँसते हो दिन हो जाता है
तुम गले लगो तो दिन सो जाता है
डोली उठाये आएगा दिन तो पास बिठा लेना
कल जो मिले तो माथे पे मेरे सूरज ऊगा देना
ज़रा ज़रा आस पास धूप रहेगी
ज़रा ज़रा आस पास रंग रहेंगे
पूछे जो कोई मेरी निशानी, रंग हिना लिखना
गोरे बदन पे ऊँगली से मेरा नाम अदा लिखना..
Sunday, May 10, 2020
बात मेरी कभी सुनी ही नहीं / दाग़ देहलवी
बात मेरी कभी सुनी ही नहीं
जानते वो बुरी भली ही नहीं
दिल-लगी उन की दिल-लगी ही नहीं
रंज भी है फ़क़त हँसी ही नहीं
लुत्फ़-ए-मय तुझ से क्या कहूँ ज़ाहिद
हाए कम-बख़्त तू ने पी ही नहीं
उड़ गई यूँ वफ़ा ज़माने से
कभी गोया किसी में थी ही नहीं
जान क्या दूँ कि जानता हूँ मैं
तुम ने ये चीज़ ले के दी ही नहीं
हम तो दुश्मन को दोस्त कर लेते
पर करें क्या तिरी ख़ुशी ही नहीं
हम तिरी आरज़ू पे जीते हैं
ये नहीं है तो ज़िंदगी ही नहीं
दिल-लगी दिल-लगी नहीं नासेह
तेरे दिल को अभी लगी ही नहीं
'दाग़' क्यूँ तुम को बेवफ़ा कहता
वो शिकायत का आदमी ही नहीं
जानते वो बुरी भली ही नहीं
दिल-लगी उन की दिल-लगी ही नहीं
रंज भी है फ़क़त हँसी ही नहीं
लुत्फ़-ए-मय तुझ से क्या कहूँ ज़ाहिद
हाए कम-बख़्त तू ने पी ही नहीं
उड़ गई यूँ वफ़ा ज़माने से
कभी गोया किसी में थी ही नहीं
जान क्या दूँ कि जानता हूँ मैं
तुम ने ये चीज़ ले के दी ही नहीं
हम तो दुश्मन को दोस्त कर लेते
पर करें क्या तिरी ख़ुशी ही नहीं
हम तिरी आरज़ू पे जीते हैं
ये नहीं है तो ज़िंदगी ही नहीं
दिल-लगी दिल-लगी नहीं नासेह
तेरे दिल को अभी लगी ही नहीं
'दाग़' क्यूँ तुम को बेवफ़ा कहता
वो शिकायत का आदमी ही नहीं
Saturday, May 9, 2020
बेच मत / दिनेश गौतम
दर्द के हाथों खुशी को बेच मत,
अपने होंठों की हँसी को बेच मत,
क्या लगाएगा भला कीमत कोई,
मान-मर्यादा, खुदी को बेच मत।
बस नुमाइश के लिए बाज़ार में,
अपने तन की सादग़ी को बेच मत।
मौत की राहें न चुन अपने लिए,
प्यार की इस ज़िंदगी को बेच मत।
बस अँधेरा ही अँधेरा पाएगा
इस तरह से रौशनी को बेच मत।
बेमुरव्वत इस ज़माने के लिए,
अपनी आँखों की नमी को बेच मत,
आलिमों में नाम होगा एक दिन,
इल्म की इस तिश्नगी़ को बेच मत।
अपने होंठों की हँसी को बेच मत,
क्या लगाएगा भला कीमत कोई,
मान-मर्यादा, खुदी को बेच मत।
बस नुमाइश के लिए बाज़ार में,
अपने तन की सादग़ी को बेच मत।
मौत की राहें न चुन अपने लिए,
प्यार की इस ज़िंदगी को बेच मत।
बस अँधेरा ही अँधेरा पाएगा
इस तरह से रौशनी को बेच मत।
बेमुरव्वत इस ज़माने के लिए,
अपनी आँखों की नमी को बेच मत,
आलिमों में नाम होगा एक दिन,
इल्म की इस तिश्नगी़ को बेच मत।
Friday, May 8, 2020
Soil / Roger McGough
we've ignored eachother for a long time
and I'm strictly an indoor man
anytime to call would be the wrong time
I'll avoid you as long as I can
When I was a boy we were good friends
I made pies out of you when you were wet
And in childhood's remembered summer weather
We roughandtumbled together
We were very close
just you and me and the sun
the world a place for having fun
always so much to be done
But gradually I grew away from you
Of course you were still there
During my earliest sexcapades
When I roughandfumbled
Not very well after bedtime
But suddenly it was winter
And you seemed so cold and dirty
That I stayed indoors and acquired
A taste for girls and clean clothes
we found less and less to say
you were jealous so one day
I simply upped and moved away
I still called to see you on occasions
But we had little now in common
And my visits grew less frequent
Until finally
One coldbright April morning
A handful of you drummed
On my fathers waxworked coffin
at last it all made sense
there was no need for pretence
you said nothing in defence
And now recently
While travelling from town to town
Past where you live
I have become increasingly aware
Of you watching me out there.
Patient and unforgiving
Toying with the trees.
we've avoided eachother for a long time
and I'm strictly a city man
anytime to call would be the wrong time
I'll avoid you as long as I can
and I'm strictly an indoor man
anytime to call would be the wrong time
I'll avoid you as long as I can
When I was a boy we were good friends
I made pies out of you when you were wet
And in childhood's remembered summer weather
We roughandtumbled together
We were very close
just you and me and the sun
the world a place for having fun
always so much to be done
But gradually I grew away from you
Of course you were still there
During my earliest sexcapades
When I roughandfumbled
Not very well after bedtime
But suddenly it was winter
And you seemed so cold and dirty
That I stayed indoors and acquired
A taste for girls and clean clothes
we found less and less to say
you were jealous so one day
I simply upped and moved away
I still called to see you on occasions
But we had little now in common
And my visits grew less frequent
Until finally
One coldbright April morning
A handful of you drummed
On my fathers waxworked coffin
at last it all made sense
there was no need for pretence
you said nothing in defence
And now recently
While travelling from town to town
Past where you live
I have become increasingly aware
Of you watching me out there.
Patient and unforgiving
Toying with the trees.
we've avoided eachother for a long time
and I'm strictly a city man
anytime to call would be the wrong time
I'll avoid you as long as I can
Thursday, May 7, 2020
वातायन / छवि निगम
अंदर हूँ मैं
देहरी की लक्ष्मण रेखा के इस पार
शहतीरें साधे
दीवारों को बांधे
आँगन ओढ़े
पैर के अगूंठे से जमीन कुरेदते
छत की आखों से लाज छिपाये
प्रतीक्षा में...
बाहर भी मैं ही हूँ
देह की देहरी के उस पार
बाहों में बादल
बिजली का आँचल
हवाओं की पायल
सपनों की ऊँची परवाज भरते
आखों में नीला आसमां सजाये
प्रतीक्षा में...
इक वातायन के।
देहरी की लक्ष्मण रेखा के इस पार
शहतीरें साधे
दीवारों को बांधे
आँगन ओढ़े
पैर के अगूंठे से जमीन कुरेदते
छत की आखों से लाज छिपाये
प्रतीक्षा में...
बाहर भी मैं ही हूँ
देह की देहरी के उस पार
बाहों में बादल
बिजली का आँचल
हवाओं की पायल
सपनों की ऊँची परवाज भरते
आखों में नीला आसमां सजाये
प्रतीक्षा में...
इक वातायन के।
Wednesday, May 6, 2020
सुनो कवि! / श्वेता राय
सुनो कवि! अब प्यार लिखो तुम, भावों का संसार लिखो।
सहला जाये जो तन मन को, मान लिखो मनुहार लिखो।
लिखो नदी क्यों बहती कलकल, कोयल कैसे गाती है।
कैसे करते शोर पखेरू, भोर किरण जब आती है।
बहका सहका मन क्यों होता, ऋतुओं के इतराने से,
क्यों खिलती हैं कलियाँ सारी, भ्रमरों के मुस्काने से।
छुअन लिखो तुम पुरवा वाली, बहती मस्त बयार लिखो।
सुनो कवि! अब प्यार लिखो तुम, भावों का संसार लिखो।
शब्दों में तुम लिखो खिलौने, रंग भावना का लिख दो।
बालू मिट्टी से रचने का, ढंग अल्पना का लिख दो॥
लिख दो बच्चे क्यों रोते हैं, माँ का आँचल पाने को।
क्यों जगती सबकी तरुणाई, अम्बर में छा जाने को॥
करता है जो जड़ को चेतन, ऐसी मस्त फुहार लिखो।
सुनो कवि! अब प्यार लिखो तुम, भावों का संसार लिखो॥
लिखो चाँदनी कैसे आकर, सोये ख्वाब जगाती है।
कैसे काली नीरव रजनी, मन को भय दिखलाती है॥
कैसे होती रात सुहावन, धड़कन सरगम बनती हैं।
संझा को अंतस में आकर, सुधियाँ कैसे ठनती है॥
मकरागति सूरज को कर के, आती मस्त बहार लिखो।
सुनो कवि! अब प्यार लिखो तुम, भावों का संसार लिखो॥
सहला जाये जो तन मन को, मान लिखो मनुहार लिखो।
लिखो नदी क्यों बहती कलकल, कोयल कैसे गाती है।
कैसे करते शोर पखेरू, भोर किरण जब आती है।
बहका सहका मन क्यों होता, ऋतुओं के इतराने से,
क्यों खिलती हैं कलियाँ सारी, भ्रमरों के मुस्काने से।
छुअन लिखो तुम पुरवा वाली, बहती मस्त बयार लिखो।
सुनो कवि! अब प्यार लिखो तुम, भावों का संसार लिखो।
शब्दों में तुम लिखो खिलौने, रंग भावना का लिख दो।
बालू मिट्टी से रचने का, ढंग अल्पना का लिख दो॥
लिख दो बच्चे क्यों रोते हैं, माँ का आँचल पाने को।
क्यों जगती सबकी तरुणाई, अम्बर में छा जाने को॥
करता है जो जड़ को चेतन, ऐसी मस्त फुहार लिखो।
सुनो कवि! अब प्यार लिखो तुम, भावों का संसार लिखो॥
लिखो चाँदनी कैसे आकर, सोये ख्वाब जगाती है।
कैसे काली नीरव रजनी, मन को भय दिखलाती है॥
कैसे होती रात सुहावन, धड़कन सरगम बनती हैं।
संझा को अंतस में आकर, सुधियाँ कैसे ठनती है॥
मकरागति सूरज को कर के, आती मस्त बहार लिखो।
सुनो कवि! अब प्यार लिखो तुम, भावों का संसार लिखो॥
Tuesday, May 5, 2020
Eclipse / Roger Waters
All that you touch
And all that you see
All that you taste
All you feel
And all that you love
And all that you hate
All you distrust
All you save
And all that you give
And all that you deal
And all that you buy,
Beg, borrow or steal
And all you create
And all you destroy
And all that you do
And all that you say
And all that you eat
And everyone you meet
And all that you slight
And everyone you fight
And all that is now
And all that is gone
And all that's to come
And everything under the sun is in tune
But the sun is eclipsed by the moon.
There is no dark side of the moon, really.
Matter of fact, it's all dark.
And all that you see
All that you taste
All you feel
And all that you love
And all that you hate
All you distrust
All you save
And all that you give
And all that you deal
And all that you buy,
Beg, borrow or steal
And all you create
And all you destroy
And all that you do
And all that you say
And all that you eat
And everyone you meet
And all that you slight
And everyone you fight
And all that is now
And all that is gone
And all that's to come
And everything under the sun is in tune
But the sun is eclipsed by the moon.
There is no dark side of the moon, really.
Matter of fact, it's all dark.
Monday, May 4, 2020
Refusal / Maya Angelou
Beloved,
In what other lives or lands
Have I known your lips
Your Hands
Your Laughter brave
Irreverent.
Those sweet excesses that
I do adore.
What surety is there
That we will meet again,
On other worlds some
Future time undated.
I defy my body's haste.
Without the promise
Of one more sweet encounter
I will not deign to die.
In what other lives or lands
Have I known your lips
Your Hands
Your Laughter brave
Irreverent.
Those sweet excesses that
I do adore.
What surety is there
That we will meet again,
On other worlds some
Future time undated.
I defy my body's haste.
Without the promise
Of one more sweet encounter
I will not deign to die.
Sunday, May 3, 2020
बेटी की किलकारी / ताराप्रकाश जोशी
कन्या भ्रूण अगर मारोगे
मां दुरगा का शाप लगेगा।
बेटी की किलकारी के बिन
आंगन-आंगन नहीं रहेगा।
जिस घर बेटी जन्म न लेती
वह घर सभ्य नहीं होता है।
बेटी के आरतिए के बिन
पावन यज्ञ नहीं होता है।
यज्ञ बिना बादल रूठेंगे
सूखेगी वरषा की रिमझिम।
बेटी की पायल के स्वर बिन
सावन-सावन नहीं रहेगा।
आंगन-आंगन नहीं रहेगा।
जिस घर बेटी जन्म न लेती
उस घर कलियां झर जाती है।
खुशबू निरवासित हो जाती
गोपी गीत नहीं गाती है।
गीत बिना बंशी चुप होगी
कान्हा नाच नहीं पाएगा।
बिन राधा के रास न होगा
मधुबन-मधुबन नहीं रहेगा।
आंगन-आंगन नहीं रहेगा।
जिस घर बेटी जन्म न लेती,
उस घर घड़े रीत जाते हैं।
अन्नपूरणा अन्न न देती
दुरभिक्षों के दिन आते हैं।
बिन बेटी के भोर अलूणी
थका-थका दिन सांझ बिहूणी।
बेटी बिना न रोटी होगी
प्राशन-प्राशन नहीं रहेगा
आंगन-आंगन नहीं रहेगा
जिस घर बेटी जन्म न लेती
उसको लक्षमी कभी न वरती।
भव सागर के भंवर जाल में
उसकी नौका कभी न तरती।
बेटी की आशीषों में ही
बैकुंठों का वासा होता।
बेटी के बिन किसी भाल का
चंदन-चंदन नहीं रहेगा।
आंगन-आंगन नहीं रहेगा।
जिस घर बेटी जन्म न लेती
वहां शारदा कभी न आती।
बेटी की तुतली बोली बिन
सारी कला विकल हो जाती।
बेटी ही सुलझा सकती है,
माता की उलझी पहेलियां।
बेटी के बिन मां की आंखों
अंजन-अंजन नहीं रहेगा।
आंगन-आंगन नहीं रहेगा।
जिस घर बेटी जन्म न लेगी
राखी का त्यौहार न होगा।
बिना रक्षाबंधन भैया का
ममतामय संसार न होगा।
भाषा का पहला स्वर बेटी
शब्द-शब्द में आखर बेटी।
बिन बेटी के जगत न होगा,
सजॅन, सजॅन नहीं रहेगा।
आंगन-आंगन नहीं रहेगा।
जिस घर बेटी जन्म न लेती
उसका निष्फल हर आयोजन।
सब रिश्ते नीरस हो जाते
अथॅहीन सारे संबोधन।
मिलना-जुलना आना-जाना
यह समाज का ताना-बाना।
बिन बेटी रुखे अभिवादन
वंदन-वंदन नहीं रहेगा।
आंगन-आंगन नहीं रहेगा।
मां दुरगा का शाप लगेगा।
बेटी की किलकारी के बिन
आंगन-आंगन नहीं रहेगा।
जिस घर बेटी जन्म न लेती
वह घर सभ्य नहीं होता है।
बेटी के आरतिए के बिन
पावन यज्ञ नहीं होता है।
यज्ञ बिना बादल रूठेंगे
सूखेगी वरषा की रिमझिम।
बेटी की पायल के स्वर बिन
सावन-सावन नहीं रहेगा।
आंगन-आंगन नहीं रहेगा।
जिस घर बेटी जन्म न लेती
उस घर कलियां झर जाती है।
खुशबू निरवासित हो जाती
गोपी गीत नहीं गाती है।
गीत बिना बंशी चुप होगी
कान्हा नाच नहीं पाएगा।
बिन राधा के रास न होगा
मधुबन-मधुबन नहीं रहेगा।
आंगन-आंगन नहीं रहेगा।
जिस घर बेटी जन्म न लेती,
उस घर घड़े रीत जाते हैं।
अन्नपूरणा अन्न न देती
दुरभिक्षों के दिन आते हैं।
बिन बेटी के भोर अलूणी
थका-थका दिन सांझ बिहूणी।
बेटी बिना न रोटी होगी
प्राशन-प्राशन नहीं रहेगा
आंगन-आंगन नहीं रहेगा
जिस घर बेटी जन्म न लेती
उसको लक्षमी कभी न वरती।
भव सागर के भंवर जाल में
उसकी नौका कभी न तरती।
बेटी की आशीषों में ही
बैकुंठों का वासा होता।
बेटी के बिन किसी भाल का
चंदन-चंदन नहीं रहेगा।
आंगन-आंगन नहीं रहेगा।
जिस घर बेटी जन्म न लेती
वहां शारदा कभी न आती।
बेटी की तुतली बोली बिन
सारी कला विकल हो जाती।
बेटी ही सुलझा सकती है,
माता की उलझी पहेलियां।
बेटी के बिन मां की आंखों
अंजन-अंजन नहीं रहेगा।
आंगन-आंगन नहीं रहेगा।
जिस घर बेटी जन्म न लेगी
राखी का त्यौहार न होगा।
बिना रक्षाबंधन भैया का
ममतामय संसार न होगा।
भाषा का पहला स्वर बेटी
शब्द-शब्द में आखर बेटी।
बिन बेटी के जगत न होगा,
सजॅन, सजॅन नहीं रहेगा।
आंगन-आंगन नहीं रहेगा।
जिस घर बेटी जन्म न लेती
उसका निष्फल हर आयोजन।
सब रिश्ते नीरस हो जाते
अथॅहीन सारे संबोधन।
मिलना-जुलना आना-जाना
यह समाज का ताना-बाना।
बिन बेटी रुखे अभिवादन
वंदन-वंदन नहीं रहेगा।
आंगन-आंगन नहीं रहेगा।
Saturday, May 2, 2020
तू अब भी ख़फ़ा है मुझ से / जाँ निसार अख़्तर
लोग कहते हैं कि तू अब भी ख़फ़ा है मुझ से
तेरी आँखों ने तो कुछ और कहा है मुझ से
हाए उस वक़्त को कोसूँ कि दुआ दूँ यारो
जिस ने हर दर्द मिरा छीन लिया है मुझ से
दिल का ये हाल कि धड़के ही चला जाता है
ऐसा लगता है कोई जुर्म हुआ है मुझ से
खो गया आज कहाँ रिज़्क़ का देने वाला
कोई रोटी जो खड़ा माँग रहा है मुझ से
अब मिरे क़त्ल की तदबीर तो करनी होगी
कौन सा राज़ है तेरा जो छुपा है मुझ से
तेरी आँखों ने तो कुछ और कहा है मुझ से
हाए उस वक़्त को कोसूँ कि दुआ दूँ यारो
जिस ने हर दर्द मिरा छीन लिया है मुझ से
दिल का ये हाल कि धड़के ही चला जाता है
ऐसा लगता है कोई जुर्म हुआ है मुझ से
खो गया आज कहाँ रिज़्क़ का देने वाला
कोई रोटी जो खड़ा माँग रहा है मुझ से
अब मिरे क़त्ल की तदबीर तो करनी होगी
कौन सा राज़ है तेरा जो छुपा है मुझ से
Friday, May 1, 2020
What Work Is / Philip Levine
We stand in the rain in a long line
waiting at Ford Highland Park. For work.
You know what work is—if you’re
old enough to read this you know what
work is, although you may not do it.
Forget you. This is about waiting,
shifting from one foot to another.
Feeling the light rain falling like mist
into your hair, blurring your vision
until you think you see your own brother
ahead of you, maybe ten places.
You rub your glasses with your fingers,
and of course it’s someone else’s brother,
narrower across the shoulders than
yours but with the same sad slouch, the grin
that does not hide the stubbornness,
the sad refusal to give in to
rain, to the hours of wasted waiting,
to the knowledge that somewhere ahead
a man is waiting who will say, “No,
we’re not hiring today,” for any
reason he wants. You love your brother,
now suddenly you can hardly stand
the love flooding you for your brother,
who’s not beside you or behind or
ahead because he’s home trying to
sleep off a miserable night shift
at Cadillac so he can get up
before noon to study his German.
Works eight hours a night so he can sing
Wagner, the opera you hate most,
the worst music ever invented.
How long has it been since you told him
you loved him, held his wide shoulders,
opened your eyes wide and said those words,
and maybe kissed his cheek? You’ve never
done something so simple, so obvious,
not because you’re too young or too dumb,
not because you’re jealous or even mean
or incapable of crying in
the presence of another man, no,
just because you don’t know what work is.
waiting at Ford Highland Park. For work.
You know what work is—if you’re
old enough to read this you know what
work is, although you may not do it.
Forget you. This is about waiting,
shifting from one foot to another.
Feeling the light rain falling like mist
into your hair, blurring your vision
until you think you see your own brother
ahead of you, maybe ten places.
You rub your glasses with your fingers,
and of course it’s someone else’s brother,
narrower across the shoulders than
yours but with the same sad slouch, the grin
that does not hide the stubbornness,
the sad refusal to give in to
rain, to the hours of wasted waiting,
to the knowledge that somewhere ahead
a man is waiting who will say, “No,
we’re not hiring today,” for any
reason he wants. You love your brother,
now suddenly you can hardly stand
the love flooding you for your brother,
who’s not beside you or behind or
ahead because he’s home trying to
sleep off a miserable night shift
at Cadillac so he can get up
before noon to study his German.
Works eight hours a night so he can sing
Wagner, the opera you hate most,
the worst music ever invented.
How long has it been since you told him
you loved him, held his wide shoulders,
opened your eyes wide and said those words,
and maybe kissed his cheek? You’ve never
done something so simple, so obvious,
not because you’re too young or too dumb,
not because you’re jealous or even mean
or incapable of crying in
the presence of another man, no,
just because you don’t know what work is.
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