आदमी ज़िन्दा रहे किस आस पर
छा रहा हो जब तमस विश्वास पर
भर न पाये गर्मजोशी से ख़याल
इस क़दर पाला पड़ा एहसास पर
वेदनाएँ दस्तकें देने लगें
इतना मत इतराइये उल्लास पर
जो हो खुद फैला रहा घर-घर इसे
पायेगा क़ाबू वो क्या सन्त्रास पर
नासमझ था, देखा सागर की तरफ़
जब न संयम रख सका वो प्यास पर
सत्य का पंछी भरेगा क्या उड़ान
पहरुआ हो झूठ जब आवास पर
दुख को भारी पड़ते देखा है कभी
आपने 'दरवेश' हास-उपहास पर
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