आषाढ केबादल
जमकर बरसे थे
इस बार।
कृषक निकाल लाया
कुदाली, फावङे
संभाल कर रखे कुछ बीज
कुछ सिक्के भी
जो संजोए थे
पूरे साल...गुल्लक में
खेत में लहराती
फसल के सपने
उग आये थे आँखों में।
लाजवंती
हुलस-हुलस कर
बना रही थी रोटी
गीत गाती
दूह रही गाय
अबके इमली का बापू
छुङा लावेगा
मेरे गहने साहुकार से।
बङकी धन्नो
बुहार आई थी
पूरी छत
और
छत के पानी से
भरी हुई बाल्टियाँ
छलक रही थी आंगन में
उसके यौवन की तरहाँ...
वो देख रही थु दर्पण
इस बार हो जाएगा
उसका गौना।
खुश था जमींदार भी
आएंगें किसान, मजदूर
लेने बीज, बैल, टैक्टर
और वह
दूगुने-चौगुने पैसों के
लेनदेन पर
लगवा लेगा
फिर से अंगूठा
एक बार।
सरकार सोच रही थी
टूटी सङक, बंद नाले,
फैलती बीमारियाँ,
आत्महत्या करते
किसानों का ठीकरा
कैसे फोङे
पिछली सरकारों के माथे पर।
आषाढ के बादल
जमकर बरसे थे
इस बार।
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