हे आर्द्रा के मेघ खंड गिरिशृंग तुंग आसीन
श्याम श्यामसुन्दर से सुन्दर नेत्रानन्द नवीन
दिग्गज से तुम दान-वारि का वैभव लिए अनन्त
मंडराते हो मधुर मन्द ध्वनि से कर ध्वनित दिगन्त।
करते हो क्या तुम अलका के यक्षों का आह्वान
शिला-सख्य से क्या तुम भी बन गये आज पाषाण
उपत्यकाकी ओर बिलोको बरस पड़ो अविलम्ब
सँजो रहे हैं सुमनांजलि ये पुलकित कुटज कदम्ब।
दुसह ग्रीष्म के दावानल से हुए लता-द्रम दग्ध
नव-जीवन दे उन्हें बनो हे वारिद वर्य विदग्ध
बढ़ा मृगशिरा के सिंचन से जिसके उर का ताप
हरण को उस धरा-धातृ का दारुण सन्ताप।
नव दूर्वा-दल दिखलावेंगे अपने हरित विभंग
छा जावेगी जनपद में चहुँ कृषकोल्लास तरंग
हे आर्द्रा के आर्द्र मेघ तुम मानो मेरी बात
जाने कब से कहाँ तुम्हें कर दे विलीन यह बात?
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