Friday, November 2, 2018

नवम्बर की दोपहर / धर्मवीर भारती

अपने हलके-फुलके उड़ते स्पर्शों से मुझको छू जाती है
जार्जेट के पीले पल्ले-सी यह दोपहर नवम्बर की !

आयी गयी ऋतुएँ पर वर्षों से ऐसी दोपहर नहीं आयी
जो क्वाँरेपन के कच्चे छल्ले-सी 
इस मन की उँगली पर 
कस जाये और फिर कसी ही रहे 
नित प्रति बसी ही रहे, आँखों, बातों में, गीतों में
आलिंगन में घायल फूलों की माला-सी 
वक्षों के बीच कसमसी ही रहे 

भीगे केशों में उलझे होंगे थके पंख 
सोने के हंसों-सी धूप यह नवम्बर की 
उस आँगन में भी उतरी होगी 
सीपी के ढालों पर केसर की लहरों-सी 
गोरे कंधों पर फिसली होगी बन आहट 
गदराहट बन-बन ढली होगी अंगों में 

आज इस वेला में 
दर्द में मुझको 
और दोपहर ने तुमको 
तनिक और भी पका दिया 
शायद यही तिल-तिल कर पकना रह जायेगा 
साँझ हुए हंसों-सी दोपहर पाँखें फैला 
नीले कोहरे की झीलों में उड़ जायेगी
यह है अनजान दूर गाँवों से आयी हुई 
रेल के किनारे की पगडण्डी 
कुछ क्षण संग दौड़-दौड़ 
अकस्मात् नीले खेतों में मुड़ जायेगी...

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