Friday, October 5, 2018

कभी-कभी यूँ ही मुस्काना / ऋतु पल्लवी

कभी-कभी यूँ ही मुस्काना मन को भाता है. 

पावस के पीले पत्तों को स्वर्ण रंग दे 
हार बना निज स्वप्न वर्ण दे 
वासंती सा मोह जगाना,मन को भाता है.
कभी-कभी यूँ ही मुस्काना मन को भाता है . 

व्यर्थ जूही-दल,मिथ्य वृन्द-कमल 
केवल भरमाने को प्रस्तुत रंग-परिमल
इससे तो सुदूर विपिन में गिरे पलाश का मान बढ़ाना,मन को भाता है.
कभी-कभी यूँ ही मुस्काना मन को भाता है. 

गर्मी के आतप से जलती जेठ-दुपहर में 
एक-एक कर तिनका चुनते,नन्हें से पंछी के संग में
छोटा सा एक नीड़ बनाना,मन को भाता है .
कभी-कभी यूँ ही मुस्काना मन को भाता है. 

हैं असीम आशाएं सबकी,सतरंगी सुख-स्वप्न सभी के
मनुज चाहता स्वार्थ सिद्धि हित,सारे मुक्तक भाग्य निधि के 
इससे तो निस्पृह बच्चे की निश्छल इच्छा बन जाना,मन को भाता है .
कभी-कभी यूँ ही मुस्काना मन को भाता है. 

जुड़े कई निश्चित से बंधन इस जीवन में 
कई हैं अपने रिश्ता-नाते ,जग प्रांगण में
किन्तु किसी अंजान पथिक को अपना कहकर स्वयं मिट जाना,मन को भाता है.
कभी-कभी यूँ ही मुस्काना मन को भाता है.

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