Monday, April 9, 2018

परिंदा जब भी कोई चीख़ता है / जयंत परमार

परिन्दा जब भी कोई चीख़ता है
ख़ामोशी का समुंदर टूटता है

अभी तक आँख की खिड़की खुली है
कोई कमरे के अंदर जागता है

चमकती धूप का बेरंग टुकड़ा
अकेला पर्वतों पर घूमता है

घने जंगल से लेकर घाटियों तक
हवा का टेढ़ा-मेढ़ा रास्ता है

गली के मोड़ पर तारीक कमरा
हमारी आहटें पहचानता है

बुलंद आवाज़ में कहती हैं लहरें
समुंदर दो किनारे जोड़ता है।

No comments:

Post a Comment

घरेलू स्त्री / ममता व्यास

जिन्दगी को ही कविता माना उसने जब जैसी, जिस रूप में मिली खूब जतन से पढ़ा, सुना और गुना... वो नहीं जानती तुम्हारी कविताओं के नियम लेकिन उ...