Wednesday, October 7, 2020

टेलीफोन पर बहन / हरप्रीत कौर

कहती है
‘एक बात कह रही हूँ
घबराना मत
घर में तो सब ठीक है
पर हाँ किसी की तार, चिठ्ठी, टेलीफोन पा कर
डरना नहीं
एक उम्र के बाद तो
जाना ही है सबको
कोई पहले भी चला जाए
तो भी डरना नहीं
हौसला रखना
हाँ हो सके तो कुछ दिन
घर आ जाना
माँ कुछ उदास है बस’

प्रत्युतर में पूछता हूँ
‘माँ के नहीं रहने पर
तुम तो रहोगी न
मेरे पास?’

Tuesday, October 6, 2020

To A Young Poet / Valery Yaklovich Bryusov

Pale youth with burning gaze,
I give you three commandments now:
Follow the first: don't live by the present,
The future is a poet's only place.

Second, remember: feel for no one,
Love yourself without bounds.
Safeguard the third: worship art,
Art alone, without thought or goal.

Pale youth with embarrassed gaze!
If you follow my three commandments,
I'll die in peace, a defeated warrior,
Knowing I leave a poet behind.

Monday, October 5, 2020

बाँधो न नाव इस ठाँव, बंधु / सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला"

बाँधो न नाव इस ठाँव, बंधु!
पूछेगा सारा गाँव, बंधु!

यह घाट वही जिस पर हँसकर,
वह कभी नहाती थी धँसकर,
आँखें रह जाती थीं फँसकर,
कँपते थे दोनों पाँव बंधु!

वह हँसी बहुत कुछ कहती थी,
फिर भी अपने में रहती थी,
सबकी सुनती थी, सहती थी,
देती थी सबके दाँव, बंधु!

Sunday, October 4, 2020

दहाड़ उठता है, विवश माँ का हृदय / तारा सिंह

हे माँ देवी कैलासिनी
जगत जननी कल्याणी
तुम हो सारे जगत की माता
मैं निज बेटे की हतभागिन जननी

माँ तुमको मालूम है, जिसके लिए मैं
तुमसे करूणा की भीख मांगने आई हूँ
वह कोई अपराधी नहीं, मेरा अंश है
मेरे जीने का अभिप्राय है, बुढ़ापे की लाठी है
झुकी और कमजोर अस्थियों की शक्ति है

मेरे सुत के तन से मधुर भाव छलकता है
अमृत से भरा वह प्याला है
जिसे चूम-चूम कर मैं जीती हूँ
इसलिए मेरी प्रार्थना, तुम स्वीकार करो
और मेरे सुत को मंगलमय वरदान दो

मेरा बेटा स्वभाव का बड़ा ही मीठा है
दुख के करुवेपन सह नहीं सकता है
मेरे आँगन का चाँद है, अँधेरे का उजाला है
सुबह की उषा किरण की तरह सुखदायी है
ओस कण की तरह प्यारा और मनमोहक है

तुम्हारे सिवा, इस लोक में मेरा कौन है माता
तुम भलीभांती जानती हो, इस दुनिया में
केवल माँ बन जाने से ममत्व पूरा नहीं हो जाता
इसलिए विनती है, मेरे सुत का मंगलमय कर दो जीवन
बदले में तुम ले लो मेरा, कोई भी स्वर्णिम क्षण

तुम प्रकाश की महासिंधु हो
थोड़ी रोशनी मेरे सुत को भी दे दो
तुम्हारे मन की ये कैसी दुबिधा
कि देवी होकर भी मेरे पुत्र का
मधुमय जीवन लौटाने से हिचक रही हो

तुम मेरी तरह असहाय नारी नहीं हो
तुम महाशक्ति की देवी हो
फिर क्यों नहीं, मेरे सुत के दुख–दर्द
के गरल को अमृत समझ पी लेती हो
और अपना प्रेम-पीयूष बरसाकर
उसके तन-मन को शीतल कर देती हो

Saturday, October 3, 2020

Mothers / Nikki Giovanni

the last time i was home
to see my mother we kissed
exchanged pleasantries
and unpleasantries pulled a warm
comforting silence around
us and read separate books

i remember the first time
i consciously saw her
we were living in a three room
apartment on burns avenue

mommy always sat in the dark
i don't know how i knew that but she did

that night i stumbled into the kitchen
maybe because i've always been
a night person or perhaps because i had wet
the bed
she was sitting on a chair
the room was bathed in moonlight diffused through
those thousands of panes landlords who rented
to people with children were prone to put in windows
she may have been smoking but maybe not
her hair was three-quarters her height
which made me a strong believer in the samson myth
and very black

i'm sure i just hung there by the door
i remember thinking: what a beautiful lady

she was very deliberately waiting
perhaps for my father to come home
from his night job or maybe for a dream
that had promised to come by
"come here" she said "i'll teach you
a poem: i see the moon
the moon sees me
god bless the moon
and god bless me"
i taught it to my son
who recited it for her
just to say we must learn
to bear the pleasures
as we have borne the pains

Friday, October 2, 2020

बापू / रामधारी सिंह "दिनकर"

संसार पूजता जिन्हें तिलक,
रोली, फूलों के हारों से,
मैं उन्हें पूजता आया हूँ
बापू! अब तक अंगारों से

अंगार, विभूषण यह उनका
विद्युत पीकर जो आते हैं
ऊँघती शिखाओं की लौ में
चेतना नई भर जाते हैं

उनका किरीट जो भंग हुआ
करते प्रचंड हुंकारों से
रोशनी छिटकती है जग में
जिनके शोणित के धारों से

झेलते वह्नि के वारों को
जो तेजस्वी बन वह्नि प्रखर
सहते हीं नहीं, दिया करते
विष का प्रचंड विष से उत्तर

अंगार हार उनका, जिनकी
सुन हाँक समय रुक जाता है
आदेश जिधर का देते हैं
इतिहास उधर झुक जाता है

अंगार हार उनका, कि मृत्यु ही
जिनकी आग उगलती है
सदियों तक जिनकी सही
हवा के वक्षस्थल पर जलती है

पर तू इन सबसे परे; देख
तुझको अंगार लजाते हैं,
मेरे उद्वेलित-जलित गीत
सामने नहीं हो पाते हैं

तू कालोदधि का महास्तम्भ, आत्मा के नभ का तुंग केतु
बापू! तू मर्त्य, अमर्त्य, स्वर्ग, पृथ्वी, भू, नभ का महा सेतु
तेरा विराट यह रूप कल्पना पट पर नहीं समाता है
जितना कुछ कहूँ मगर, कहने को शेष बहुत रह जाता है

लज्जित मेरे अंगार; तिलक माला भी यदि ले आऊँ मैं
किस भांति उठूँ इतना ऊपर? मस्तक कैसे छू पाऊँ मैं
ग्रीवा तक हाथ न जा सकते, उँगलियाँ न छू सकती ललाट
वामन की पूजा किस प्रकार, पहुँचे तुम तक मानव, विराट

Thursday, October 1, 2020

शेष / गंगा प्रसाद विमल

शेष
कई बार लगता है
मैं ही रह गया हूँ अबीता पृष्ठ
बाकी पृष्ठों पर
जम गई है धूल।

धूल के बिखरे कणों में
रह गए हैं नाम
कई बार लगता है
एक मैं ही रह गया हूँ
अपरिचित नाम।

इतने परिचय हैं
और इतने सम्बंध
इतनी आंखें हैं
और इतना फैलाव
पर बार-बार लगता है
मैं ही रह गया हूँ
सिकुड़ा हुआ दिन।

बेहिसाब चेहरे हैं
बेहिसाब धंधे
और उतने ही देखने वाले दृष्टि के अंधे
जिन्होंने नहीं देखा है
देखते हुए
उस शेष को
उस एकांत शेष को
जो मुझे पहचानता है
पहचानते हुए छोड़ देता है
समय के अंतराल में...

घरेलू स्त्री / ममता व्यास

जिन्दगी को ही कविता माना उसने जब जैसी, जिस रूप में मिली खूब जतन से पढ़ा, सुना और गुना... वो नहीं जानती तुम्हारी कविताओं के नियम लेकिन उ...