Tuesday, March 30, 2021

बीज / सपना मांगलिक

गिरा बीज कोई अनजान
उम्मीदों का उमड़ा तूफ़ान
धरती सीने हुई रोपाई
फसल स्वप्न की लहलहाई
थी सख्त धरा जैसे मरू
काश बनता यह विशाल तरु
रवि ने अपनी तपिश बढ़ाई
धूप भी तंज से खिलखिलाई
है कहाँ नसीब का जल तुझपे मूरख
करेगी कैसे इसकी सिंचाई?
भावों की बहती बूंदों से
सींचा नयनों के मेघों से
सह सूरज की प्रचंड तपन
हर मुश्किल को मैंने किया दफ़न
कर ली उम्मीदों की यूँ सिंचाई
बिखरी सुगंध चिड़िया चहचहाई
मेहनत से जीवन गया संवर
बीज कल का आज बना शजर

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