मेरे यादों के कोने में आज फिर एक गिलहरी
कुदक रही, फुदक रही, मासूमियत से भरी।
डरती तो जरा भी ना थी मुझसे कभी भी
नीम के डाल से कूद के चली आती थी बालकनी में
और कुतरती रहती थी निबौरियाँ -
अधकच्ची, अधपक्की।
फिर वापस चली जाती थी, अचानक से ही
मानो कोई वास्ता ही ना हो उन जुठी निबौरियों से।
मेरे यादों के कोने में आज फिर एक गिलहरी
कुदक रही, फुदक रही, अपनी ही चंचलता से भरी।
उसे अपने कमरे में देखने की आदत हो गयी थी
आती-जाती तो ऐसे थी, जैसे कमरा उसका भी हो
पीछे छोड़ जाती थी कुछ जुठी निबौरियाँ -
अधकच्ची, अधपक्की।
जैसे जता रही हो कि कमरा मेरे अकेले का नही
उसे भी गन्दा करने का उतना ही हक़ है, जितना मुझे।
मेरे यादों के कोने में आज फिर एक गिलहरी
कुदक रही, फुदक रही, गज़ब की फुर्ति से भरी।
कितनी बार कोशिशें की, उसे दौड़ के पकड़ने की
तब उतना आलसी भी नहीं था, और जिद भी बहुत थी
पर हर बार मेरी जिद को उसकी चपलता हरा देती
ऐसे ही किसी के बदन पे थोड़े ही होती हैं धारियाँ,
भगवान राम की उँगलियों के निशान वाले।
मेरे यादों के कोने में आज फिर एक गिलहरी
कुदक रही, फुदक रही, कई सारी बातों से भरी।
पर कहाँ सुन पा रहा किसी भी बात को
वक़्त भी कम हैं और अब तो वो ज़िद भी नहीं है
ना वो बालकनी, ना कमरा और ना नीम का पेड़
बची रह गयी है यादें, जो चली आती हैं वक़्त-बेवक़्त
उसकी मासूमियत, फुर्ति, चंचलता और कुछ जुठी निबौरियाँ-
अधकच्ची, अधपक्की।
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