आज मेरे सरल चांद को किस
ग्रहण ने ग्रसा है ?
आज कैसी विपद में विहंगम
गगन का फँसा है ?
मौन वातावरण में बिखरतीं
उदासीन किरणें,
रंग बदला कि मानों उठी हो
घटा घोर घिरने !
दूर का यह अँधेरा सघन अब
निकट आ रहा है,
गीत दुख का, बड़ी वेदना का
पवन गा रहा है !
अश्रु से भर खड़े मूक बनकर
सभी तो सितारे,
हो व्यथित यह सतत सोचते हैं
कि किसको पुकारें ?
साथ हूँ मैं सुधाधर तुम्हारे
मुझे दुख बताओ,
हूँ तुम्हारा, रहूँगा तुम्हारा
न कुछ भी छिपाओ !
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