Saturday, November 17, 2018

जब शहर हमारा सोता है / पीयूष मिश्रा

सन्नाटा...वीराना...!
ख़ामोशी अनजानी...!
ज़िंदगी लेती है...करवटें तूफ़ानी...!
घिरते हैं साये घनेरे से...
रूखे बालों को बिखेरे से...
बढ़ते हैं अँधेरे पिशाचों से...
काँपे हैं जी उनके नाचों से...
कहीं पे वो जूतों की खटखट है...
कहीं पे अलावों की चटपट है..
कहीं पे हैं झींगुर की आवाज़ें...
कहीं पे वो नलके की टप–टप है...
कहीं पे वो काली–सी खिड़की है..
कहीं वो अँधेरी–सी चिमनी है...
कहीं हिलते पेड़ों का जत्था है...
कहीं कुछ मुँड़ेरों पे रक्खा है...ओ हो हो...!

सुनसान गली के नुक्कड़ पर
जो कोई कुत्ता चीख़–चीख़कर रोता है
जब लैंपपोस्ट की गँदली पीली
घुप्प रोशनी में कुछ–कुछ–सा होता है
जब कोई साया ख़ुद को थोड़ा
बचा–बचा कर गुम सायों में खोता है
जब पुल के खंभों को
गाड़ी का गरम उजाला धीमे–धीमे धोता है
जब कहती हैं आवाज़ें
धीमे–धीमे गुपचुप–गुपचुप कोई दास्तान
जब होती है ख़ामोशी
बंद अँधेरों की शक्लो–सूरत पर मेहरबान
जब अलसाया शैतान
उबासी लेकर अपने जबड़े ख़ूँ से धोता है
जब अँगड़ाई को तोड़
चहलक़दमी करने की तैयारी में होता है...
तब शहर हमारा सोता है...

जब शहर हमारा सोता है
तो मालूम तुमको हाँ क्या–क्या होता है
इधर जागती हैं लाशें ज़िंदा हो
मुर्दा उधर ज़िंदगी खोता है...
इधर चीख़ती है इक हव्वा
ख़ैराती उस अस्पताल में
बिफरी–सी हाथ में उसके अगले ही पल
गरम मांस का नरम लोथड़ा होता है...
इधर उठी हैं तकरारें
जिस्मों के झटपट लेन–देन में ऊँची–सी
उधर घाव से रिसते ख़ूँ को
दूर गुज़रती आँखें देखें रूखी–सी
लेकिन उस कोने के
रंग–बिरंगे होटल में गुंजाइश होती है
नशे में डूबे ज़ेहन से
ख़ूँख़्वार चुटकुलों की पैदाइश होती है...
अधनंगे जिस्मों की देखी
लिपी–पुती–सी लगी नुमाइश होती है
लार टपकते चेहरों को
कुछ शैतानी करने की ख़्वाहिश होती है...
वो पूछे हैं हैराँ होकर...
ऐसा सब कुछ होता है कब
तो बतलाओ तो उनको ऐसा तब तब
तब तब होता है
जब शहर हमारा सोता है...

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