सहरा को दरिया समझा था
मैं भी तुझ को क्या समझा था
हाथ छुड़ा कर जाने वाले
मैं तुझ को अपना समझा था
फिर जाऊँगा अपनी ज़बाँ से
क्या मुझ को ऐसा समझा था
इतनी आँख तो मुझ में भी थी
जिन्दगी को ही कविता माना उसने जब जैसी, जिस रूप में मिली खूब जतन से पढ़ा, सुना और गुना... वो नहीं जानती तुम्हारी कविताओं के नियम लेकिन उ...
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