आरज़ूएँ हज़ार रखते हैं
तो भी हम दिल को मार रखते हैं
बर्क़ कम-हौसला है हम भी तो
दिल को बे-क़रार रखते हैं
ग़ैर ही मूरिद-ए-इनायत है
हम भी तो तुम से प्यार रखते हैं
न निगह ने पयाम ने वादा
नाम को हम भी यार रखते हैं
हम से ख़ुश-ज़मज़मा कहाँ यूँ तो
लब ओ लहजा हज़ार रखते हैं
चोट्टे दिल के हैं बुताँ मशहूर
बस यही ए'तिबार रखते हैं
फिर भी करते हैं 'मीर' साहब इश्क़
हैं जवाँ इख़्तियार रखते हैं
(कभी ग़ालिब ने कहा था-
"रेख़्ते के तुम्हीं उस्ताद नहीं हो 'ग़ालिब'
कहते हैं अगले ज़माने में कोई 'मीर' भी था "
मीर आज भी उर्दू के पहले सबसे बड़े शायर जिन्हें ' ख़ुदा-ए-सुख़न - शायरी का ख़ुदा- कहा जाता है।)
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