Sunday, March 4, 2018

आग से ख़ौफ़ नहीं / जाबिर हुसेन

आग से ख़ौफ़ नहीं
आग जलती है तो
उसकी लौ से
एक पैकर-सा उभरता है
मेरे ख़्वाबों में
एक पैकर
जो बसद इज्ज़-व-अना
मांगता है
मेरी ख़ातिर
मेरे रब से
कोई अच्छी-सी दुआ

और मैं नीद की गहराई से
जाग उठता हूँ
कितने भी तीरह-व-तारीक
रहे हों लम्हात
मैंने महसूस किया है ऎसा

आग जलती है
जलाती है, सभी को, लेकिन
इसके जलने से
स्याही की रिदा हटती है
मेरे ग़मख़ाने में
चाहत की फ़िज़ा बनती है

आग से ख़ौफ़ नहीं
आग जलती है तो
उसकी लौ से
एक पैकर-सा उभरता है
सियह बख़्त
हिसारो में मेरे

और मैं
नींद की गहराई से
जाग उठता हूँ

आग जलती है तो
उसकी लौ से
एक पैकर-सा उभरता है
ख़्यालों में मेरे
एक पैकर
जो बताता है मुझे
शम-ए-उल्फ़त की ज़िया कैसी हो
मौसम-ए-गुल की क़बा कैसी हो
आग से ख़ौफ़ नहीं
आग जलती है तो
उसकी लौ से
एक दिलावेज़ सदा आती है
और मैं
नींद की गहराई से
जाग उठता हूँ
आग से ख़ौफ़ नहीं

No comments:

Post a Comment

घरेलू स्त्री / ममता व्यास

जिन्दगी को ही कविता माना उसने जब जैसी, जिस रूप में मिली खूब जतन से पढ़ा, सुना और गुना... वो नहीं जानती तुम्हारी कविताओं के नियम लेकिन उ...