Wednesday, February 7, 2018

रेगिस्तान की रात / दीप्ति नवल

रेगिस्तान की रात है
और आँधियाँ से
बनते जाते हैं निशां
मिटते जाते हैं निशां

दो अकेले से क़दम
ना कोई रहनुमां
ना कोई हमसफ़र

रेत के सीने में दफ्न हैं
ख़्वाबों की नर्म साँसें
यह घुटी-घुटी सी नर्म साँसें ख़्वाबों की
थके-थके दो क़दमों का सहारा लिए
ढूँढ़ती फिरती हैं
सूखे बयाबानों में
शायद कहीं कोई साहिल मिल जाए

रात के आख़री पहर से लिपटे इन ख़्वाबों से
इन भटकते क़दमों से
इन उखड़ती सांसों से
कोई तो कह दो !
भला रेत के सीने में कहीं साहिल होते हैं ।

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