Wednesday, February 14, 2018

मन मस्त मगन / अमिताभ भट्टाचार्य

इश्क की धूनी रोज जलाये
उठता धुंआ तो कैसे छुपाये
हो अखियाँ करे जी हजूरी
माँगे है तेरी मंज़ूरी
कजरा सियाही दिन रंग जाये
तेरी कस्तूरी रैन जगाये
मन मस्त मगन
मन मस्त मगन
बस तेरा नाम दोहराये

चाहे भी तो भूल ना पाये
मन मस्त मगन
मन मस्त मगन बस तेरा नाम दोहराये

जोगिया जोग लगा के
मखरा रोग लगा के
इश्क की धुनी रोज़ जलाये
उठता धुंआ तो कैसे छुपाये
मन मस्त मगन
मन मस्त मगन बस तेरा नाम दोहराये

चाहे भी तो भूल न पाये
मन मस्त मगन
मन मस्त मगन बस तेरा नाम दोहराये
ओढ़ के धानी रीत की चादर
आया तेरे शहर में राँझा तेरा
दुनिया ज़माना, झूठा फ़साना
जीने मरने का वादा, सांचा मेरा
हो शीश-महल ना मुझको सुहाये
तुझ संग सूखी रोटी भाये
मन मस्त मगन
मन मस्त मगन बस तेरा नाम दोहराये

चाहे भी तो भूल ना पाये
मन मस्त मगन
मन मस्त मगन बस तेरा नाम दोहराये

No comments:

Post a Comment

घरेलू स्त्री / ममता व्यास

जिन्दगी को ही कविता माना उसने जब जैसी, जिस रूप में मिली खूब जतन से पढ़ा, सुना और गुना... वो नहीं जानती तुम्हारी कविताओं के नियम लेकिन उ...