Monday, January 8, 2018

हती चुकी घरे के देश? / भगवती प्रसाद द्विवेदी

सूखि गइल
आँखिन में लहलहात
सपनन के समुन्दर
खूने-खून हो गइल-
सतलज, व्यास, रावी
झेलम, चिनाब के पानी
बेटिन के जवानी
फटाफट बन हो गइल
मए घरन के केवाड़
खिड़की, झरोखा
पाँख पसारि के पसरि गइल
मातमी चुप्पी
गूँजे लागल
दनवा-दईंतन के बूट के दहशत
टूटि पड़लप स बेटा
माई के इज्जत लूटे खातिर
उहे बेटा
जवन कबो माई खातिर
खून के धार
पानी नियर बहवले रहलन स
लाज बचवले रहलन स
धाँय-धाँय, ठाँय-ठाँय
रोवा-रोहट आ फरियाद में
मटियामेट हो रहल बाड़न स
गुरबानी के सबद
भींजत लकड़ी के आग नियर
धुँआ रहल बा
गुरमीत कौर आ गुरचरन सिंह के
‘वाहे गुरु’ के विनती
हवा-पानी लेबे खातिर तरसत
अबोध जसवन्त के नइखे होत बोध
सोच में ऊभ-चूभ करत
बढ़त जा रहल बा
ओकरा मन के कलेश
कि आखिर कइसे ऊ मानी
हती चुकी घरे के देश?

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