Monday, November 30, 2020
कुछ उलटी सीधी बातें / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’
जला सब तेल दीया बुझ गया है अब जलेगा क्या।
बना जब पेड़ उकठा काठ तब फूले फलेगा क्या।।
रहा जिसमें न दम जिसके लहू पर पड़ गया पाला।
उसे पिटना पछड़ना ठोकरें खाना खलेगा क्या।।
भले ही बेटियाँ बहनें लुटें बरबाद हों बिगड़ें।
कलेजा जब कि पत्थर बन गया है तब गलेगा क्या।।
चलेंगे चाल मनमानी बनी बातें बिगाड़ेंगे।
जो हैं चिकने घड़े उन पर किसी का बस चलेगा क्या।।
जिसे कहते नहीं अच्छा उसी पर हैं गिरे पड़ते।
भला कोई कहीं इस भाँत अपने को छलेगा क्या।।
न जिसने घर सँभाला देश को क्या वह सँभालेगा।
न जो मक्खी उड़ा पाता है वह पंखा झलेगा क्या।।
मरेंगे या करेंगे काम यह जी में ठना जिसके।
गिरे सर पर न बिजली क्यों जगह से वह टलेगा क्या।।
नहीं कठिनाइयों में बीर लौं कायर ठहर पाते।
सुहागा आँच खाकर काँच के ऐसा ढलेगा क्या।।
रहेगा रस नहीं खो गाँठ का पूरी हँसी होगी।
भला कोई पयालों को कतर घी में तलेगा क्या।।
गया सौ सौ तरह से जो कसा कसना उसे कैसा।
दली बीनी बनाई दाल को कोई दलेगा क्या।।
भला क्यों छोड़ देगा मिल सकेगा जो वही लेगा।
जिसे बस एक लेने की पड़ी है वह न लेगा क्या।।
सगों के जो न काम आया करेगा जाति-हित वह क्या।
न जिससे पल सका कुनबा नगर उससे पलेगा क्या।।
रँगा जो रंग में उसके बना जो धूल पाँवों की।
रँगेगा वह बसन क्यों राख तन पर वह मलेगा क्या।।
करेगा काम धीरा कर सकेगा कुछ न बातूनी।
पलों में खर बुझेगा काठ के ऐसा बलेगा क्या।।
न आँखों में बसा जो क्या भला मन में बसेगा वह।
न दरिया में हला जो वह समुन्दर में हलेगा क्या।
Wednesday, November 25, 2020
बातचीत अपने आप से / विजया सती
अभी अपने कमरे में थी तुम
किताबों के पन्ने पलटती -
कविताएँ पढ़ती,
कब जा चढ़ी कंचनजंघा पहाड़
जिसे तुमने कभी देखा ही नहीं?
और उस दिन बरसात के बाद
दिखा था जब इन्द्रधनुष
क्यों देखती ही रह गई थी तुम
जबकि सीटियों पर सीटियाँ दे रहा था
कुकर रसोई में?
क्यों तुमने बना लिया है मन ऐसा
कि झट जा पहुँचता है वह
पुरी के समुद्र तट पर?
कभी फूलों की घाटी से होकर
मैदान तक दौड़ जाता है तुम्हें बिना बताए?
अब इसी समय देखो न -
कितने-कितने चेहरे और दृश्य और
उनसे जुड़ी बातें
आ-जा रही हैं तुममें
बाँसुरी की तान के साथ झूमता
नीली आँखों वाले लड़के का चेहरा,
घर की सीढ़ियों पर गुमसुम बैठी
उस बच्ची का चेहरा
जिसके ममी-पापा आज फिर लड़े हैं!
अब तुम्हारे भीतर करवट ले रहा है
बचपन के विद्यालय में उगा
बहुत पुराना इमली का पेड़
बस दो ही पल बीते
कि चल दी
दिल्ली परिवहन की धक्का-मुक्की के बीच राह बनाती
सीधे अपने प्रिय विश्वविद्यालय परिसर !
अब सुनोगी भी या
मकान बनाते मजदूरों को देख
बस याद करती रहोगी कार्ल मार्क्स!
कितनी उथल-पुथल से भरा
बेसिलसिलेवार-सा
एक जमघट है तुम्हारा मन
यह तो कहो कि क्यों
एक-सा स्पंदित कर जाता है तुम्हें
फिराक का शे'र
और तेंदुलकर का छक्का?
Tuesday, November 24, 2020
Disillusionment Of Ten O'Clock / Wallace Stevens
The houses are haunted
By white night-gowns.
None are green,
Or purple with green rings,
Or green with yellow rings,
Or yellow with blue rings.
None of them are strange,
With socks of lace
And beaded ceintures.
People are not going
To dream of baboons and periwinkles.
Only, here and there, an old sailor,
Drunk and asleep in his boots,
Catches Tigers
In red weather.
Monday, November 23, 2020
Now The Hungry Lion Roars / William Shakespeare
Now the hungry lion roars,
And the wolf behowls the moon;
Whilst the heavy ploughman snores,
All with weary task fordone.
Now the wasted brands do glow,
Whilst the screech-owl, screeching loud,
Puts the wretch that lies in woe
In remembrance of a shroud.
Now it is the time of night,
That the graves, all gaping wide,
Every one lets forth his sprite,
In the churchway paths to glide:
And we fairies, that do run
By the triple Hecate's team,
From the presence of the sun,
Following darkness like a dream,
Now are frolic; not a mouse
Shall disturb this hallowed house:
I am sent with broom before
To sweep the dust behind the door.
(From "A Midsummer-Night's Dream" Act V, Scene 2)
Friday, November 20, 2020
छठ की याद में / फ़रीद खान
पटना की स्मृति के साथ मेरे मन में अंकित है,
सूर्य को अर्घ्य देते हाथों के बीच से दिखता लाल सा सूरज ।
पूरे शहर की सफ़ाई हुई होगी ।
उस्मान ने रंगा होगा त्रिपोलिया का मेहराब ।
बने होंगे पथरी घाट के तोरण द्वार ।
परसों सबने खाए होंगे गन्ने के रस से बनी खीर,
और गुलाबी गगरा नींबू ।
व्रती ने लिया होगा हाथ में पान और कसैली ।
अम्मी बता रही थीं,
चाची से अब सहा नहीं जाता उपवास,
इसलिए मंजु दीदी ने उठाया है उनका व्रत ।
रुख़सार की शादी भी अब हो जाएगी ।
उसकी अम्मी ने भी अपना एक सूप दिया था मंजु दीदी को ।
सबकी कामनाएँ पूरी होंगी,
धान की फ़सल जो अच्छी आई है इस बार ।
पानी पटा होगा सड़कों पर शाम के अर्घ्य के पहले ।
धूल चुपचाप कोना थाम कर बैठ गई होगी ।
व्रती जब साष्टांग करते हुए बढ़ते हैं घाट पर,
तो वहाँ धूल कण नहीं होना चाहिए, न ही आना चाहिए मन में कोई पाप ।
वरना बहुत पाप चढ़ता है ।
इस समय बढ़ने लगती है ठंड पटना में।
मुझे याद है एक व्रती ।
सुबह अर्घ्य देकर वह निकला पानी से,
अपने में पूरा जल जीवन समेटे
और चेहरे पर सूर्य का तेज लिए ।
गंगा से निकला वह
दीये की लौ की तरह सीधा और संयत ।
सुबह के अर्घ्य में ज़्यादा मज़ा आता था,
क्यों कि ठेकुआ खाने को तब ही मिलता था ।
पूरा शहर अब थक कर सो रहा होगा,
एक महान कार्य के बोध के साथ।
Wednesday, November 18, 2020
A Bank Fraud / Rudyard Kipling
He drank strong waters and his speech was coarse;
He purchased raiment and forbore to pay';
He stuck a trusting junior with a horse,
And won gymkhanas in a doubtful way.
Then 'twixt a vice and folly, turned aside
To do good deeds and straight to cloak them, lied.
Monday, November 16, 2020
In Prison / William Morris
Wearily, drearily,
Half the day long,
Flap the great banners
High over the stone;
Strangely and eerily
Sounds the wind's song,
Bending the banner-poles.
While, all alone,
Watching the loophole's spark,
Lie I, with life all dark,
Feet tether'd, hands fetter'd
Fast to the stone,
The grim walls, square-letter'd
With prison'd men's groan.
Still strain the banner-poles
Through the wind's song,
Westward the banner rolls
Over my wrong.
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