Monday, November 9, 2020

Despair / Samuel Taylor Coleridge

I have experienc'd
The worst, the World can wreak on me--the worst
That can make Life indifferent, yet disturb
With whisper'd Discontents the dying prayer--
I have beheld the whole of all, wherein
My Heart had any interest in this Life,
To be disrent and torn from off my Hopes
That nothing now is left. Why then live on ?
That Hostage, which the world had in it's keeping
Given by me as a Pledge that I would live--
That Hope of Her, say rather, that pure Faith
In her fix'd Love, which held me to keep truce
With the Tyranny of Life--is gone ah ! whither ?
What boots it to reply ? 'tis gone ! and now
Well may I break this Pact, this League of Blood
That ties me to myself--and break I shall !

Sunday, November 8, 2020

Pine Forest / Gabriela Mistral

Let us go now into the forest.
Trees will pass by your face,
and I will stop and offer you to them,
but they cannot bend down.
The night watches over its creatures,
except for the pine trees that never change:
the old wounded springs that spring
blessed gum, eternal afternoons.
If they could, the trees would lift you
and carry you from valley to valley,
and you would pass from arm to arm,
a child running
from father to father.

Saturday, November 7, 2020

एक दीप सूरज के आगे / चंद्र कुमार जैन

लीक से हटकर अलग
चाहे हुआ अपराध मुझसे,
सच कहूँ, सूरज के आगे
दीप मैंने रख दिया है !

प्रश्नों के उत्तर नये देकर
उलझना जानता हूँ ,
और हर उत्तर में जलते
प्रश्न को पहचानता हूँ !
जाने क्यों संसार मेरे
प्रश्न पर कुछ मौन सा है ,
तोड़ने इस मौन का हर स्वाद
मैंने चख लिया है !

इंद्रधनुषी स्वप्न का बिखराव
मैंने खूब देखा,
रात का रुठा हुआ बर्ताव
मैंने खूब देखा !
पर सुबह की चाह मैंने
ताक पर रखना न जाना,
हर चुनौती को सफल जीवन का
स्वीकृत सच लिया है !

धूल से उठकर लकीरें
याद के जंगल में भटकीं,
और गले में चीख के वे
दर्द के मानिंद अटकीं !
पर मुझे जो आईना था
हर घड़ी निज - पथ सुझाता,
बस उसी के नाम यादों का
झरोखा कर दिया है !

स्वप्न मृत होते नहीं
यदि दीप हरदम दिपदिपायें,
धीरे - धीरे ही सही
जलती वो बाती मुस्कराये !
कोई माने या न माने
मान दे या तुच्छ बोले
जी सकूँ हर अंधेरे में
मैंने ऐसा हठ किया है !

सच कहूँ, सूरज के आगे
दीप मैंने रख दिया है !

Thursday, November 5, 2020

Expect Nothing / Alice Walker

Expect nothing. Live frugally
On surprise.
become a stranger
To need of pity
Or, if compassion be freely
Given out
Take only enough
Stop short of urge to plead
Then purge away the need.

Wish for nothing larger
Than your own small heart
Or greater than a star;
Tame wild disappointment
With caress unmoved and cold
Make of it a parka
For your soul.

Discover the reason why
So tiny human midget
Exists at all
So scared unwise
But expect nothing. Live frugally
On surprise.

Tuesday, November 3, 2020

चुनाव और सरकार / बसंत त्रिपाठी

सड़कें सुधर रही हैं शहर की
कोलतार की परतें बिछ रहीं
पानी दो बखत
बिजली भी बरोबर
और तो और
जन-प्रतिनिधि भी हर हमेशा पड़ते दिखाई

लगता है
चुनाव नज़दीक है
और सरकार
ख़तरे में है।

Monday, November 2, 2020

अजोध्या से गुजरात / धर्मेन्द्र पारे

खो गई है किसी की गाड़ी
और किसी का गन्तव्य
किसी को पता नहीं है मंज़िल का
कोई मंज़िल की आस में बैठा है उनींदा
कोई सब कुछ गंवाकर
बढ़ रहा है नई शुरूआत की तरफ़
एक है जिसने भर लिया है घड़ा
खिसका रहा है कोई अपने ही
बेबस साथी की पोटली
महिला बोगी में बैठी वह
आँसुओं से नहला रही है अंधकार को

इस ट्रेन में दो स्वप्न मिल गए हैं
जो लम्बी यात्रा पर जाना चाहते हैं

इन सबकी यात्राओं के बीच
जो भी है कूड़ा-करकट उनको
बुहार लेना चाहते हैं कुछ
बेहद कोमल हाथ और बेहद निश्छल मन से
गुजरात से अजोध्या
अजोध्या से गुजरात
इन सबको भी स्थान दो भाई

Sunday, November 1, 2020

दुष्यंत की अंगूठी / अंजू शर्मा

प्रिय,
हर संबोधन जाने क्यूँ
बासी सा लगता है मुझे,
सदा मौन से ही
संबोधित किया है तुम्हे,
किन्तु मेरे मौन और
तुम्हारी प्रतिक्रिया के बीच
ये जो व्यस्तता के पर्वत है
बढती जाती है रोज़
इनकी ऊंचाई,
जिन्हें मैं रोज़ पोंछती हूँ
इस उम्मीद के साथ कि किसी रोज़
इनके किसी अरण्य में शकुंतला मिलेगी दुष्यंत से,
क्यों नहीं सुन पाते हो तुम अब
नैनों की भाषा
जिनमे पढ़ लेते थे
मेरा
अघोषित आमंत्रण,
मेरी बाँहों से अधिक घेरते हैं तुम्हे
दुनिया भर के सरोकार,
और प्रेम के बोल ढल गए हैं
इन वाक्यों में
"शाम को क्या बना रही हो तुम"
तुम्हारे प्रेम पत्र
रखा है मैंने,
क्यों पीले पड़ते जा रहे हैं दिनोदिन,
और लम्बी होती जा रही है
राशन की वो लिस्ट,
ऑफिस जाते समय भूल जाते हो कुछ
और मैं बच्चों के टिफिन की
भूलभुलैया में उलझी बस मुस्कुरा
देती हूँ,
फिर किसी दिन फ़ोन पर
इतराकर पूछते हो,
"याद आ रही है मेरी"
और मैं अचकचा कर फ़ोन को
देखती हूँ ये तुम्ही हो
जो कल दुर्वासा बने लौटे थे,
और शकुन्तला झुकी थी श्राप की
प्रतीक्षा में,
फिर खो जाती हूँ मैं
रात के खाने और सुबह की
तैयारियों के घने जंगल में
सोते हुए एक छोटे बालक
से लगते हो तुम,
और तुम्हारी लटों को संवारते हुए
तुम्हे चादर ओढ़ते हुए,
अचानक पा लेती हूँ मैं
दुष्यंत की अंगूठी...

घरेलू स्त्री / ममता व्यास

जिन्दगी को ही कविता माना उसने जब जैसी, जिस रूप में मिली खूब जतन से पढ़ा, सुना और गुना... वो नहीं जानती तुम्हारी कविताओं के नियम लेकिन उ...