सर्प क्यूं इतने चकित हो
दंश का अभ्यस्त हूं
पी रहा हूं विष युगों से
सत्य हूं आश्वस्त हूं
सर्प क्यूं इतने चकित हो...
ये मेरी माटी लिए है
गंध मेरे रक्त की
जो कहानी कह रही है
मौन की, अभिव्यक्त की
मैं अभय लेकर चलूंगा
मैं व्यथित ना त्रस्त हूं
सर्प क्यूं इतने चकित हो...
है मेरा उद्गम कहां पर
और कहां गंतव्य है
दिख रहा है सत्य मुझको
रूप जिसका भव्य है
मैं स्वयं की खोज में
कितने युगों से व्यस्त हूं
सर्प क्यूं इतने चकित हो...
मुझे संज्ञान इसका
बुलबुला हूं सृष्टि में
एक लघु सी बूंद हूं मैं
एक शाश्वत वृष्टि में
है नहीं सागर को पाना
मैं नदी संन्यस्त हूं
सर्प क्यूं इतने चकित हो...
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