Wednesday, August 28, 2019

तुम्हारा क्या तुम्हें आसाँ बहुत रस्ते बदलना है / जलील ’आली’

तुम्हारा क्या तुम्हें आसाँ बहुत रस्ते बदलना है
हमें हर एक मौसम क़ाफ़िले के साथ चलना है

बस इक ढलवान है जिस पर लुढ़कते जा रहे हैं हम
हमें जाने नशेबों में कहाँ जा कर सँभलना है

हम इस डर से कोई सूरज चमकने ही नहीं देते
कि जाने शब के अँधियारों से क्या मंज़र निकलना है

हमारे दिल-जज़ीरे पर उतरता ही नहीं कोई
कहें किस से कि इस मिट्टी ने किस साँचे में ढलना है

निगाहें पूछती फिरती हैं आवारा हवाओं से
ज़मीनों ने ज़मानों का ख़ज़ाना कब उगलना है

किसी मासूम से झोंके की इक हल्की सी दस्तक पर
इन्ही पत्थर पहाड़ों से कोई चश्मा उबलना है

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